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सुख दुःखों के दास नहीं, स्वामी बनिए
'सुख और दुःख दोनों क्या है, कौन है, दोनों में परस्पर क्या रिस्ता है ? क्या यह आप अच्छी तरह जानते हैं ? लगता है, अभी तक आपको इनका अच्छी तरह परिचय नहीं है । आश्चर्य है, ये दिन रात आपके साथ रहते हैं, अनन्त अतीत काल से आपके संपर्क में हैं, फिर भी आप इन्हें ठीक तरह पहचानते नहीं हैं ?
सुख और दुःख दोनों परस्पर बन्धु हैं, सगे सहोदर ! बाहर की सूरत में रंग रूप में भले ही कुछ अन्तर है । किन्तु अन्दर में दोनों एक हैं । गुण-कर्म और स्वभाव दोनों का एक है । इसीलिए भगवान महावीर ने कहा था सुख और दु:ख वेदनीय कर्म की संतान हैं । दोनों औदयिक हैं, कर्मजन्य है । दोनों में ही आकलता है, पीडा है । अनाकुलता की भूमिका, जो वस्तुतः शान्ति का परम केन्द्र है, दोनों से परे है । यह ज्ञानी की भूमिका है । ज्ञानी वह, जो सुख-दुःख को भोगता हुआ भी, दोनों की पकड़ से मुक्त है ।
अज्ञानी आत्मा, आत्म - बोध से शून्य होता है । वह बाह्य वस्तुओं की अनुकूल प्राप्ति में सुखानुभूति करता है । उक्त सुखानुभूति में से राग फूट पड़ता है अत: अबोध आत्मा सुख की कल्पना में खुश होता है, मचलता है, इठलाता है, अपने को एक विशिष्ट व्यक्ति समझता है, और दूसरों की दीन, हीन, तुच्छ, भाग्यहीन, कायर, और भी न जाने क्या-क्या समझता है । इतना ही नहीं, दु:ख से पीड़ित अभावग्रस्तों की हँसी उड़ाता है, मजाक करता है, समाज की दृष्टि में उन्हें जब तब गिराता है । भोजन में, वस्त्र में, भवन में, विवाह में, धर्म में, समाज में सर्वत्र अज्ञानी के अहंकार का सर्प फुंकार मारता रहता है, विष उगलता रहता है । आपने वैभव-विलासों का, सुख-साधनों का भौंडा प्रदर्शन करने से वह कभी चूकता नहीं है । परन्तु इस अज्ञानी को पता नहीं है, कि तेरे इस दंभ में तेरा कितना पतन हो रहा है ? तू अंधकार के भयंकर गर्त में कितनी
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