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________________ होता | वस्तुत: स्वभाव में परिणत होने पर मिलनेवाला सुख, शान्ति और आनन्द ही वास्तविक है । वह अव्याबाध सुख है, उसमें किसी भी तरह की रुकावट, विघ्न और बाधा उपस्थित नहीं होती है और न किसी प्रकार के बाह्य साधनों की ही अपेक्षा रहती है । भौतिक सुख क्या है? इसे समझ लेना भी आवश्यक है । व्यक्ति सुखमय जीवन बिताने के लिए भौतिक पदार्थों का संग्रह करता है । किन्तु सत्य यह है कि पदार्थों में सुख नहीं है । वे सुख के साधन तो हैं, परन्तु स्वयं सुखरूप या दु:खरूप नहीं है । अत्यधिक पदार्थ रहने पर भी व्यक्ति का जीवन अशान्त और दु:खी दिखाई देता है, वह रात-दिन परेशान सा रहता है । और कुछ व्यक्ति ऐसे भी परिलक्षित होते हैं कि स्वल्प साधनों के रहते हुए भी सन्तुष्ट, शान्त और सुखी हैं और मस्ती से जीवन-यात्रा कर रहे हैं । अत: सुख अनुकूल संवेदन में हैं । पुण्य का उदय होने पर दुःखरूप प्रतीत होनेवाला पदार्थ भी अनुकूल होने के कारण सुखरूप हो जाता है, और पाप का उदय होने पर अनुकूल साधन भी प्रतिकूल हो जाते हैं और कष्टप्रद लगते हैं । लडका सुखरूप और आनन्ददायक लगता है । उसका वियोग होने पर व्यक्ति बहुत दु:खी होता है । परन्तु यदि वह अपनी इच्छा के अनुकूल बर्ताव नहीं करता है, नालायक और दुष्ट स्वभाव का है, तो उसके रहने पर भी सुख की अनुभूति नहीं होती । उसके घर में रहने से मन और अधिक परेशान रहता है | व्यक्ति यहाँ तक चाहने लगता है कि यह मर जाए या घर से चला जाए तो अच्छा रहे | बादाम का हलवा और बादाम की बर्फी बहुत अच्छी लगती है, उसका आस्वादन रुचिकर और सुखरूप लगता है । परन्तु ज्वर हो जाने पर या पेट भर जाने पर यदि बादाम का हलवा तथा बादाम और पिस्ते की बर्फी यदि कोई आपके सामने रखे तो कैसी लगेगी? उस समय वह अच्छी नहीं लगती । पेट भर जाने के बाद कभी स्नेही व्यक्ति एक-दो बर्फी या एक-दो चम्मच हलवा खाने का आग्रह करता है, तो उस समय यही शब्द निकलते हैं कि अब कष्ट मत दो, अधिक परेशान मत करो । क्योंकि स्वस्थ अवस्था और भूख के समय बादाम का हलवा और बर्फी अनुकूल लगने से खाने पर सुख का संवेदन होता था, परन्तु अस्वस्थ होने पर या पेट भर जाने पर वे ही पदार्थ दु:खरूप हो गए । पदार्थ वे ही हैं । उनमें किसी तरह का परिवर्तन नहीं आया । परन्तु स्वास्थ्य के प्रतिकूल होने के कारण कष्टप्रद हो गए । इसलिए सुख और दुःख का संवेदन अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति के अनुरूप होता है, अत: वह तत्त्वत: एकरूप नहीं है, स्थायी नहीं है । (९३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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