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आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति राग-द्वेष के कुछ क्षीण तथा सर्वथा नष्ट होने पर होती है । उच्चतम साधक के मन में अनुकूल या प्रतिकूल किसी भी पदार्थ पर राग-द्वेष नहीं रहता । हर परिस्थिति में वह अपने स्वभाव में स्थित रहता है, इसलिए उसे कभी भी दुःख की अनुभूति नहीं होती । पूर्वबद्ध कर्म उदय में आने पर वह साधक को अपना फल तो देता है, परन्तु आध्यात्मिकता एवं वीतरागत का साधक अनुकूल के संवेदन में आसक्त नहीं बनता, और प्रतिकूल के वेदन में उसके प्रति घृणा और नफरत के भाव नहीं रखता । अपने स्वरूप, कर्म और पदार्थों के स्वभाव को जानकर हर परिस्थिति में सम बना रहता है, अपने स्वभाव में रमण करता है, इसलिए उसे परम आनन्द की ही अनुभूति होती है । दर्पण को यदि गंगा के प्रवाह के सामने रख दिया जाए, तो वेग से बहता हुआ प्रवाह उसमें दिखाई देगा । सागर के सामने रख दिया जाए, तो हजारों लाखों लहरें ऊपर को उछलती और नीचे गिरकर सागर के किनारे से • टकरा कर विलीन होती हुई दिखाई देंगी । जलते हुए दावानल के सामने दर्पण रख दिया जाए, तो उसमें निकलती हुई ज्वाला और चिनगारियाँ तो स्पष्ट दिखेंगी। परन्तु न तो गंगा का प्रवाह उसे बहा कर ले जाएगा, न समुद्र में उठने वाली लहरों से वह गीला होगा और न दावानल की ज्वाला उसे जला पाएगी । दर्पण के सामने जो कुछ आएगा वह प्रतिबिम्बित तो होगा, परन्तु दर्पण पर उसका कोई असर नहीं होगा । इसी प्रकार अपने स्वरूप में रमणशील साधक के सामने अनुकूल और प्रतिकूल पदार्थ आते हैं, सुख और दुःख भी आते हैं जिन्हें आगम में अनुकूल और प्रतिकूल परीषह कहा है परीषह वह है, जिन्हें समभावपूर्वक सहा जाए । सुख और दुःख या अनुकू दोनों स्थितियों में अध्यात्म-चिन्तन का सन्तुलन बना रहना चाहिए । अनुकूल संयोग हमारे लिए सुखरूप हैं, परन्तु ज्ञानी की दृष्टि में प्रतिकूल ही नहीं, अनुकूल संयोग भी परीषह हैं । क्योंकि वे स्वभाव से नहीं, विभाव से उत्पन्न हुए हैं, कर्मजन्य हैं और - चिन्तन में स्वभावरमण में बाधक हैं । अतः साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह उनके संवेदन में आसक्त न हो कर अपने आप में सम बना रहे । सुख-दुःख से ऊपर उठ कर स्वभाव में स्थित रहने वाला साधक ही परम आनन्द और अव्याबाध सुख की अनुभूति कर सकता है ।
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आत्म
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भारतीय मनीषियों ने साधक के सामने एक बात रखी है कि वह अपने आप को प्रभु के चरणों में समर्पित कर दे । जैन आगम में कहा है कि साधक प्रतिदिन यह भावना करता है कि मुझे अरहन्त की शरण प्राप्त हो, सिद्धप्रभु का
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