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प्रभावित कर सकेंगी । किसी भी कार्य को प्रारंभ करने से पूर्व उसके सम्बन्ध में समग्र दृष्टिकोणों से विचार करना आवश्यक हो जाता है । मनुष्य के मन में जब कोई विचार अथवा चिन्तन प्रारंभ होता है, तब वह बहुत छोटे रूप में होता है,
और धीरे-धीरे वही एक विचार विकास पाते-पाते समग्र विश्व को प्रभावित करने वाला बन जाता है | समय पाकर वह विचार सिद्धान्तरूप में स्थिर हो जाता है, और जब उसमें पूज्यत्वबुद्धि का प्रारंभ हो जाता है, तब वही विचार एक शास्त्र का रूप ग्रहण कर लेता है ।
वेदान्त का नव अद्वैतवाद एक दिन आचार्य शंकर के मन की एक छोटी-सी तरंग थी, किन्तु आगे चल कर धीरे-धीरे वह एक स्वतंत्र सिद्धान्त हो गया, और अद्वैतवाद पर अनेक ग्रन्थों की रचना होने लगी । अनेक शताब्दियों की यात्रा करते-करते आज वह एक स्वतंत्र दर्शन के रूप में जन-चेतना के समक्ष व्यापक स्तर पर प्रगट हो चुका है । बौद्ध-परम्परा के विज्ञानवाद और शून्यवाद की स्थिति भी इसी प्रकार की रही है । जैन-परम्परा का अनेकान्तवाद एक दिन महावीर के मन में उठने वाली एक छोटी-सी विचार-तरंग रही होगी । समय
और परिस्थितिवश जैसे-जैसे युगप्रधान आचार्यों ने उस पर गंभीर चिन्तन प्रारंभ किया, वैसे-वैसे अनेकान्तवाद का सिद्धान्त इतना विशाल और विराट हो गया कि आज समस्त जैनदर्शन का सार उसे कहा जा सकता है ।
जीवन और सिद्धान्त
___ जीवन और सिद्धान्त, इन दोनों में से यदि किसी एक को मुख्यता देनी हो, तब वह निश्चित ही जीवन को मिलेगी | आज तक जगत् में जितने भी सिद्धान्तों का निर्माण हुआ है, उनका मुख्य आधार मानवीय जीवन ही रहा है । जितने भी सिद्धान्त हैं, वे सब जीवन के लिए हैं, किन्तु जीवन सिद्धान्तों के लिए नहीं हो सकता | जीवन को सरस, सुन्दर एवं मधुर बनाने के जितने भी प्रकार हो सकते हैं, उन सभी प्रकारों को अथवा उनकी प्रयोगात्मक पद्धतियों को हम सिद्धान्त कह देते हैं । यदि कोई सिद्धान्त जीवन-विकास में बाधा बन कर खड़ा हो जाए, तो उसमें समय-समय पर संशोधन किए जाते रहे हैं, और यह होना आवश्यक भी है । अन्यथा जीवन की गति अवरुद्ध हो जाएगी । परिणामत: जीवन निष्क्रिय होगा, और निष्क्रिय जीवन से किसी भी लक्ष्य की पूर्ति की आशा करना व्यर्थ होगा । यही कारण है जीवन को समझने के लिए और मनोविज्ञान नितान्त
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