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मनुष्य का जीवन किस दिशा की ओर गतिशील होगा । किसी भी दिशा की ओर आगे बढ़ने से पूर्व उसके विषय में गंभीर चिन्तन अत्यन्त आवश्यक है । यही कारण है कि जीवन और दर्शन का परस्पर निकट का सम्बन्ध रहा है । विद्वान व्यक्ति का ही नहीं, अनपढ़ व्यक्ति का भी अपना एक विशेष दृष्टिकोण होता है, और वस्तुत: यही उसका दर्शन होता है । भारत में वैदिक एवं अवैदिक तथा 'षड्दर्शन' नामसे सुप्रख्यात जो षड्दर्शन है उसकी यहाँ चर्चा नहीं है । यहाँ विचारणा उसी दर्शन की है, जो मनुष्य का अपना एक स्वतंत्र चिन्तन और विचार होता है । यह बात अलग है कि कभी-कभी मनुष्य का चिन्तन उसके पूर्व संस्कारों से अनुरंजित हो जाता है । फिर भी उसके विचारों की स्वतंत्रता पर किसी प्रकार का आघात सफल नहीं हो सकता । यह भी देखा जाता है कि मनुष्य अपने जीवन में समाज के विरोध के कारण अपने विचारों को प्रकाशित नहीं कर पाता । उस स्थिति में भी उसका अपना स्वतंत्र चिन्तन अन्तर्मुखी हो कर विकसित होता रहता है ।
जीवन और मनोविज्ञान
जीवन का सम्बन्ध मनोविज्ञान से अधिक निकट का है । मनोविज्ञान भी नये युग का नया दर्शन है । जीवन का एक भी क्षेत्र इस प्रकार का नहीं है, जो मनोविज्ञान से प्रभावित न हो । मनोविज्ञान में मानव जीवन के अनेक दृष्टिकोणों का समावेश हो जाता है । जीवन के अन्तरंग और बहिरंग सभी रूपों पर विचार करना, मनोविज्ञान का मुख्य विषय है । मनोविज्ञान के अध्ययन से मनुष्य अपने अन्तर्जगत को भलीभाँति समझ सकता है । जब मनुष्य का दार्शनिक दृष्टिकोण बदल जाता है, तो उसकी सम्पूर्ण कार्यप्रणाली में परिवर्तन हो जाते है । मनुष्य का दार्शनिक दृष्टिकोण देश की सर्वोच्च्य सत्ता के समान है । इस सत्ता के नीचे विभिन्न ...चारी कार्य करते हैं । यदि सर्वोच्च राज्यसत्ता बुद्धिमान और सतर्क हुई, तो कर्मचारी ठीक से काम करते हैं, अन्यथा वे अपनी मनमानी करने लगते हैं । फिर जिस ओर प्रमुख राजसत्ता का अनुकूल रुख होता है, उसी ओर अन्य कर्मचारियों का भी वैसा ही रुख हो जाता है । प्रत्येक कर्मचारी की कार्यक्षमता केन्द्रीय सत्ता की दृढ़ता पर निर्भर करती है । जब अपने कर्मचारियों के प्रति उसके आदेश निश्चयात्मक होते हैं, तो सरकार का कार्य सुचारुरूप से चलता है । मनोविज्ञान के पंडितों का कहना है कि मनुष्य के मन में उठने वाली विचार-तरंगें जितनी उत्तुंग और जितनी गहरी होंगी, वे मन को उतनी ही अधिक
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