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| ४२ चिंतन की मनोभूमि जो स्वयं तो नहीं जाग सकते; परन्तु दूसरों के द्वारा जगाए जाने पर अवश्य जाग उठते हैं। यह श्रेणी साधारण साधकों की है। तीसरी श्रेणी उन पुरुषों की है, जो स्वयंमेव समय पर जाग जाते हैं, मोह-माया की निद्रा त्याग देते हैं और मोह-निद्रा में प्रसुप्त विश्व को भी अपनी एक आवाज से जगा देते हैं। हमारे तीर्थङ्कर इसी श्रेणी के महापुरुष हैं। तीर्थङ्कर देव किसी के बताये हुए पूर्व निर्धारित समय पथ पर नहीं चलते। वे अपने और विश्व के उत्थान के लिए स्वयं अपने पथ का निर्माण करते हैं। तीर्थङ्कर का पथ-प्रदर्शन करने के लिए न कोई गुरु होता है, और न कोई शास्त्र। वह स्वयं ही अपना पथ-प्रदर्शक है, स्वयं ही उस पथ का यात्री है। वह अपना पथ स्वयं खोज निकालता है। स्वावलम्बन का यह महान् आदर्श, तीर्थङ्करों के जीवन में कूट-कूट कर भरा होता है। तीर्थङ्कर देव सड़ी-गली और पुरानी अन्ध-व्यर्थ परम्पराओं को छिन्न-भिन्न कर जन-हित के लिए नई परम्पराएँ, नई योजनाएँ स्थापित करते हैं। उनकी क्रान्ति का पथ स्वयं अपना होता है, वह कभी भी परमुखापेक्षी नहीं होते। पुरुषोत्तम :
तीर्थङ्कर भगवान् पुरुषोत्तम होते हैं। पुरुषोत्तम, अर्थात पुरुषों में उत्तम_श्रेष्ठ। भगवान् के क्या बाह्य और क्या आभ्यन्तर—दोनों ही प्रकार के गुण अलौकिक होते हैं, असाधारण होते हैं। भगवान् का रूप त्रिभुवन-मोहक होता है और उनका तेज सूर्य को भी हत-प्रभ बना देने वाला। भगवान् का मुखचन्द्र सुर-नर-नाग नयन मनहर होता है और, उनके दिव्य शरीर में एक-से-एक उत्तम एक हजार आठ लक्षण होते हैं, जो हर किसी दर्शक को उनकी महत्ता की सूचना देते हैं। वज्रर्षभनाराच संहनन
और समचतुरस्र संस्थान का सौन्दर्य तो अत्यन्त ही अनूठा होता है। भगवान् के परमौदारिक शरीर के समक्ष देवताओं का दीप्तिमान वैक्रिय शरीर भी बहुत तुच्छ एवं नगण्य मालूम देता है। यह तो है बाह्य ऐश्वर्य की बात! अब जरा अन्तरंग ऐश्वर्य की बात भी मालूम कर लीजिए। तीर्थङ्कर देव अनन्त चतुष्टय के धर्ता होते हैं। उनके अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन आदि गुणों की समता भला दूसरे साधारण देवपद-वाच्य कहाँ कर सकते हैं ? तीर्थङ्कर देव के अपने युग में, कोई भी संसारी पुरुष उनके समकक्ष नहीं होता। पुरुषसिंह :
___ तीर्थङ्कर भगवान् पुरुषों में सिंह होते हैं। सिंह एक अज्ञानी पशु है, हिंसक जीव है। अत: कहाँ वह निर्दय एवं क्रूर पशु और कहाँ दया एवं क्षमा के अपूर्व भंडार भगवान् ? भगवान् को सिंह की उपमा देना, कुछ उचित नहीं मालूम देता! किंतु, यह मात्र एक देशी उपमा है। यहाँ सिंह से अभिप्राय, सिंह की वीरता और पराक्रम मात्र से है। जिस प्रकार वन में पशुओं का राजा सिंह अपने बल और पराक्रम के कारण
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