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________________ जैन-दर्शन में सप्त भंगीवाद ५३७ भंग में अस्ति आदि तीन अंश हैं, और शेष में दो-दो अंश। इस संदर्भ में आचार्य शान्तिसूरि ने लिखा है-"ते च स्वावयवापेक्षया विकलादेशाः।११ परन्तु आज के कतिपय विचारक उक्त मत भेद को कोई विशिष्ट महत्त्व नहीं देते। उनकी दृष्टि में यह एक विवक्षाभेद के अतिरिक्त कुछ नहीं। जब कि एक सत्व या असत्व के द्वारा समग्र वस्तु का ग्रहण हो सकता है, तब सत्वासत्त्वादि रूप से मिश्रित दो या तीन धर्मों के द्वारा भी अखण्ड वस्तु का बोध क्यों नहीं हो सकता। अत: सातों ही भंगों को सकलादेशी और विकलादेशी मानना तर्क-सिद्ध राजमार्ग है। सप्त भंगी का इतिहास : भारतीय दर्शनों में विश्व के सम्बन्ध के सत्, असत्, उभय और अनुभय_ये चार पक्ष बहुत प्राचीन काल से ही विचार-चर्चा के विषय रहे हैं। वैदिक काल में२ जगत् के सम्बन्ध में सत् और असत् रूप से परस्पर विरोधी दो कल्पनाओं का स्पष्ट उल्लेख है। जगत् सत् है या असत् ? -इस विषय में उपनिषदों में भी३ विचार उपलब्ध होते हैं। वहीं पर सत् और असत् की उभयरूपता और अनुभयरूपता के, अर्थात् वचनागोचरता के उल्लेख भी प्राप्त होते हैं। अवक्तव्य तो उपनिषत्साहित्य का एक मुख्य सूत्र है, यह निर्विवाद ही है। बुद्ध के विभज्यवाद और अव्याकृतवाद में भी उक्त चार पक्षों का उल्लेख मिलता है। महावीर कालीन तत्त्व-चिन्तक संजय के अज्ञानवाद में भी उक्त चार पक्षों की उपलब्धि होती है। भगवान् महावीर ने अपनी विशाल एवं तत्त्व-स्पर्शिणी दृष्टि से वस्तु के विराट रूप को देखकर कहावस्तु में उक्त चार पक्ष ही नहीं, अपितु एक-एक वस्तु में अनन्त पक्ष हैं, अनन्त विकल्प हैं, अनन्त धर्म हैं। विश्व की प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। अतएव भगवान् महावीर ने उक्त चतुष्कोटि से विलक्षण वस्तुगत प्रत्येक धर्म के लिए सप्त भंगी का और इस प्रकार अनन्त धर्मों के लिए अनन्त सप्त भंगी का प्रतिपादन करके वस्तु बोध का सर्वग्राही एवं वैज्ञानिक रूप प्रस्तुत किया। भगवान् महावीर से पूर्व उपनिषदों में वस्तु-तत्त्व के सदसद्वाद को लेकर विचारणा प्रारम्भ हो चुकी थी, परन्तु उसका वास्तविक निर्णय नहीं हो सका। संजय ने उसे अज्ञात कहकर टालने का प्रयत्न किया। बुद्ध ने कुछ बातों में विभज्यवाद का कथन करके शेष बातों में अव्याकृत कहकर मौन स्वीकार किया। परन्तु भगवान् महावीर ने वस्तु-स्वरूप के प्रतिपादन में उपनिषद के अनिश्चयवाद को, संजय के १. न्यायावतार सूत्र वार्तिक वृत्ति-पृ. ९४ २. एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति-ऋग्वेद १, १६४, ४६ सदसत् दानों के लिए देखिए ऋग्वेद १०, १२९ , ३. सदेव सौम्येदमग्र आसीत्—छान्दोग्योपनिषद् ६, २ असदेवेदमग्र आसीत्व ही, ३, १९, १ ४. यतो वाचो निवर्तन्ते-तैत्तिरीय २, ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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