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५३६ चिंतन की मनोभूमि
सप्त भंगी के सम्बन्ध में एक प्रश्न और उठता है और वह यह है कि जब जैन-दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म हैं, तब सप्त भंगी के स्थान पर अनन्त भंगी स्वीकार करनी चाहएि, सप्त भंगी नहीं? उक्त प्रश्न का समाधान यह है कि प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म हैं, और उसके एक-एक धर्म को लेकर एक-एक सप्त भंगी बनती है। इस दृष्टि से अनन्त सप्त भंगी स्वीकार करने में जैन-दर्शन का कोई विरोध नहीं है, वह इसको स्वीकार करता है। किन्तु वस्तु के किसी एक धर्म को लेकर, एक ही सप्त भंगी बन सकती है, अनन्त भंगी नहीं। इस प्रकार जैन-दर्शन को अनन्त सप्त भंगी का होना, तो स्वीकार है, परन्तु अनन्त भंगी स्वीकार नहीं हैं। सकलता-विकलता का विचार भेद :
___ आचार्य सिद्धसेन और अभयदेव सूरि ने "सत्, असत् और अवक्तव्य" इन तीन भंगों को सकलादेशी और चार भंगों को विकलादेशी माना है। न्यायावतारसूत्रवार्तिक वृत्ति में आचार्य शान्तिसूरि ने भी "अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य" को सकलादेश और शेष चार को विकलादेश कहा है। उपाध्याय यशोविजय ने जैन-तर्क भाषा और गुरुतत्त्व-विनिश्चिय में उक्त परम्परा का अनुगमन न करके सातों भंगों को सकलादेशी और विकलादेशी माना है। परन्तु अपने अष्ट सहस्री विवरणो४ में उन्होंने तीन भंगों को सकलादेशी और शेष चार को विकलादेशी स्वीकार किया है। अकलंक
और विद्यानन्द आदि प्रायः सभी दिगम्बर जैनाचार्य सातों ही भंगों का सकलादेश और विकलादेश के रूप में उल्लेख करते हैं।
सत्, असत् और अक्तव्य भंगों को सकलादेशी और शेष चार भंगों को विकलादेशी मानने वालों का. यह अभिप्राय है, कि प्रथम भंग में द्रव्यार्थिक दृष्टि के द्वारा "सत्" रूप से अभेद होता है, और उसमें सम्पूर्ण द्रव्य का परिबोध हो जाता है। दूसरे भंग में पर्यायार्थिक दृष्टि के द्वारा समस्त पर्यायों में अभेदोपचार से अभेद मानकर असत् रूप से भी समस्तद्रव्य का ग्रहण किया जा सकता है, और तीसरे अवक्तव्य भंग में तो सामान्यतः भेद अविवक्षित ही है। अतः सम्पूर्ण द्रव्य के ग्रहण में कोई कठिनाई नहीं है।
उक्त तीनों भंग अभेदरूपेण समग्र द्रव्य-ग्राही होने से सकलादेशी हैं। इसके विपरीत अन्य शेष भंग स्पष्ट ही सावयव या अंशग्रही होने से विकलादेशी हैं। सातवें
१. प्रतिपर्यायं सप्तभंगी वस्तुनि-इति वचनात् तथाऽनन्ताः सप्तीभंग्यो भवेयुरित्यपि नानिष्टम्।
-तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक १,६,५२ २. पं. सुखलाल जी और पं. बेचरदास जी द्वारा संपादित -सन्मति तर्क,सटीक पृ. ४४६ ३. पं. दलसुख मालवणिया संपादित, पृ. ९४ ४. पृष्ठ २०८
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