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तीर्थङ्कर | ३३ ढूँढ़ा जाता है न ? इसी प्रकार पुराने धार्मिक विधानों में विकृति आ जाने के बाद नए तीर्थङ्कर, संसार के समक्ष नए धार्मिक विधानों की योजना उपस्थित करते हैं। धर्म का मूल प्राण वही होता है, केवल क्रियाकाण्ड रूप- शरीर बदल देते हैं । जैन समाज प्रारम्भ से, केवल धर्म की मूल भावनाओं पर विश्वास करता आया है, न कि पुराने शब्दों और पुरानी पद्धतियों पर । जैन तीर्थङ्करों का शासन- -भेद, उदाहरण के लिए, भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् महावीर का शासन-भेद, मेरी उपर्युक्त मान्यता के लिए ज्वलन्त प्रमाण है ।
अष्टादश दोष :
जैन धर्म में मानव जीवन की दुर्बलता के अर्थात् मनुष्य की अपूर्णता के सूचक निम्नोक्त अठारह दोष माने गये हैं
१. मिथ्यात्व = असत्य विश्वास ।
२. अज्ञान ।
३. क्रोध ।
४. मान ।
५. माया
६. लोभ
= कपट ।
७.
रति = मन पसन्द वस्तु के मिलने पर हर्ष । ८. अरति = अमनोज्ञ वस्तु के मिलने पर खेद । ९. निद्रा ।
१०. शोक ।
११ . अलीक = झूठ | १२. चौर्य = - चोरी।
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१३. मत्सर = डाह ।
१४. भय।
१५. हिंसा ।
१६. राग आसक्ति ।
१७. क्रीड़ा = खेल-तमाशा, नाच - रंग ।
१८. हास्य = हँसी-मजाक ।
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जब तक मनुष्य इन अठारह दोषों से सर्वथा मुक्त नहीं होता, तब तक वह आध्यात्मिक शुद्धि के पूर्ण विकास के पद पर नहीं पहुँच सकता। ज्यों ही वह अठारह दोषों से मुक्त हो जाता है, त्यों ही आत्मशुद्धि के महान् ऊँचे शिखर पर पहुँच जाता है और केवल ज्ञान एवं केवल दर्शन के द्वारा समस्त विश्व का ज्ञाता- द्रष्टा बन
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