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३२ चिंतन की मनोभूमि को धर्मोपदेश देकर उसे असत्य-प्रपंच के चंगुल से छुड़ाते हैं, सत्य के पथ पर लगाते हैं और संसार में पूर्ण सुख-शान्ति का आध्यात्मिक साम्राज्य स्थापित करते हैं।
तीर्थङ्करों के शासन-काल में प्रायः प्रत्येक भव्य स्त्री-पुरुष अपने आप को पहचान लेता है, और स्वयं सुख पूर्वक जीना, दूसरों को सुख पूर्वक जीने देना तथा दूसरों को सुख पूर्वक जीते रहने के लिए अपने सुखों की कुछ भी परवाह न करके अधिक-से-अधिक सहायता देना'-उक्त महान् सिद्धान्त को अपने जीवन में उतार लेता है। अस्तु तीर्थङ्कर वह है, जो संसार को सच्चे धर्म का उपदेश देता है, आध्यात्मिक तथा नैतिक पतन की ओर ले जाने वाले पापाचारों से बचाता है, संसार को भौतिक सुखों की लालसा से हटाकर आध्यात्म-सुखों का प्रेमी बनाता है, और बनाता है नरक-स्वरूप उन्मत्त एवं विक्षिप्त संसार को सत्यं शिवं सुन्दरं का स्वर्ग!
अरिहन्त भगवान् तीर्थङ्कर कहलाते हैं। तीर्थङ्कर का अर्थ है—तीर्थ का निर्माता जिसके द्वारा संसाररूप मोहमाया का महानद सुविधा के साथ तिरा जाए, वह धर्म, तीर्थ कहलाता है। संस्कृत भाषा में घाट के लिए 'तीर्थ' शब्द प्रयुक्त होता है। अतः ये घाट के बनाने वाले तैराक, लोक में तीर्थङ्कर कहलाते हैं। हमारे तीर्थकर भगवान् भी इसी प्रकार घाट के निर्माता थे, अतः तीर्थकर कहलाते थे। आप जानते हैं, यह संसाररूपी नदी कितनी भयंकर है ? क्रोध, मान, माया, लोभ आदि के हजारों विकाररूप मगरमच्छ, भँवर और गर्त हैं इसमें, जिन्हें पार करना सहज नहीं है। साधारण साधक इन विकारों के भंवर में फंस जाते हैं, और डूब जाते हैं। परन्तु तीर्थङ्कर देवों ने सर्व-साधारण साधकों की सुविधा के लिए धर्म का घाट बना दिया है, सदाचाररूपी विधि-विधानों की एक निश्चित योजना तैयार करदी है, जिससे कोई साधक सुविधा के साथ इस भीषण नदी को पार कर सकता है।
- तीर्थ का अर्थ पुल भी है। बिना पुल के नदी से पार होना बड़े-से-बड़े बलवान् के लिए भी अशक्य है; परन्तु पुल बन जाने पर साधारण दुर्बल, रोगी यात्री भी बड़े आनन्द से पार हो सकता है और तो क्या, नन्हीं-सी चींटी भी इधर से उधर पार हो सकती है। हमारे तीर्थङ्कर वस्तुतः संसार की नदी को पार करने के लिए धर्म का तीर्थ बना गए हैं, पुल बना गए हैं, साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका-रूप चतुर्विध संघ की धर्म-साधना, संसार-सागर से पार होने के लिए पुल है। अपने सामर्थ्य के अनुसार इनमें से किसी भी पुल पर चढ़िए, किसी भी धर्म-साधना को अपनाइए, आप उस पार हो जायेंगे।
आप प्रश्न कर सकते हैं कि इस प्रकार धर्म तीर्थ की स्थापना करने वाले तो भारतवर्ष में सर्वप्रथम श्रीऋषभदेव भगवान् हुए थे; अतः वे ही तीर्थङ्कर कहलाने चाहिए। दूसरे तीर्थङ्करों को तीर्थङ्कर क्यों कहा जाता है ? उत्तर में निवेदन है कि प्रत्येक तीर्थकर अपने युग में प्रचलित धर्म-परम्परा में समयानुसार परिवर्तन करता है, अत: नये तीर्थ का निर्माण करता है। पुराने घाट जब खराब हो जाते हैं, तब नया घाट
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