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५१० चिंतन की मनोभूमि
व्यापक बनती जाती है। हम आन्तरिक जगत् में, जितने व्यापक बनते जाएँगे, हमारी सद्वृत्तियाँ जितनी दूर तक विस्तार पाती जाएँगी और उनमें जन- हित की सीमा जितनी व्यापक होती जाएगी, उतना ही ईश्वरीय अंश हमारे अन्दर प्रकट होता जाएगा। जितना-जितना ईश्वरत्व जाग्रत होगा, उतनी उतनी ही आत्मा परमात्मा के रूप में परिणत होती चली जाएगी।
सुख बाँटते चलो :
आपका परमात्मा आपके अन्दर कितना जाग्रत हुआ है, इसको नापने का 'बैरोमीटर' भी आपके पास है। उस 'बैरोमीटर' से आप स्वयं को भी जान पाएँगे कि अभी आप कितने व्यापक बने हैं! कल्पना कीजिए, आप के सामने आप का परिवार हो, उस परिवार में बूढ़े माँ-बाप हैं, भाई-बहन हैं और दूसरे सगे-सम्बन्धी भी हैं। कोई रोगी भी है, कोई पीड़ित भी है। कोई ऐसा भी है, जो न तो कुछ कमा सकता है और न ही कुछ श्रम कर सकता है। ऐसे परिवार का उत्तरदायित्व आपके ऊपर है। इस स्थिति में आपके मन में कल्पना उठती है कि "सब लोग मेरी कमाई खाते हैं, सब के सब बेकार पड़े हैं, अन्न के दुश्मन बन रहे हैं, काम कुछ नहीं करते । बूढ़े माँ - बाप अब तक परमात्मा की शरण में नहीं जा रहे हैं, जब बीमार पड़ते हैं, तो उन्हें दवा चाहिए ।" और इस विचार के बाद आप उन्हें उपदेश दें कि 'अब क्या रक्खा है संसार में ? छोड़ो संसार को । बहुत दिन खाया-पीया । कब तक ऐसे रहोगे ? आखिर तो मरना ही है एक दिन ।' यह उपदेश तो आपका काफी ऊँचा है, बहुत पहुँची हुई बात है आपकी, पर आपका दृष्टिकोण कहाँ तक पहुँचा है, यह भी तो देखिए । वास्तव में आप यह उपदेश किसी सहज वैराग्य से प्रेरित हो कर दे रहे हैं, या अपने सुख का और सुख के साधनों का जो बँटवारा हो रहा है, उसे रोकने के लिए दे रहे हैं ? जो समय और श्रम आपको उनकी सेवा में लगाना पड़ रहा है, उससे ऊब कर ही तो आप यह वैराग्य की बात कर रहे हैं ? यदि अपने स्वार्थ और सुख के घेरे में बन्द होकर ही आप यह वैराग्य की बात करते हैं, तो फिर सोचिए कि जब आप अपने परिवार में ही व्यापक नहीं बन पा रहे हैं, माता-पिता तक के हृदय को अभी तक स्पर्श नहीं कर सके हैं। उनके लिए भी कुछ त्याग और बलिदान नहीं कर सकते हैं, भाई-बहनों के अन्तस्तल को नहीं छू सकते हैं, तब समाज के हृदय तक पहुँचने की तो बात ही क्या करें ? यदि परिवार की छोटी-सी चारदीवारी के भीतर भी आप व्यापक नहीं बन पाए हैं, तो वह विश्वव्यापी परमात्मतत्व आप में कैसे जाग्रत होगा ? अपने सुख को माता और भाई-बहनों में भी आप नहीं बाँट सकते, तो समाज को बाँटने की बात कैसे सोची जा सकती है ?
विचार कीजिए घर में आपका पुत्र-पौत्रादि का परिवार है, आपका सहोदर भाई भी है, उसका भी परिवार है, पत्नी है, बाल बच्चे हैं- लड़के-लड़कियाँ हैं । अब आपके मन में अपने लिए अलग बात है, अपने भाई के लिए अलग बात है।
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