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________________ वसुधैव कुटुम्बकम् ५०९ __ भारतीय संस्कृति में यह समर्पण की भावना, करुणा और दान के रूप में विकसित हुई है। करुणा मानव-आत्मा का मूल स्वर है। किन्तु खेद है, उस करुणा का जो सर्वव्यापक और सर्वग्राही रूप पहले था, वह आज कुछ सीमित एवं संकीर्ण विधि-निषेधों में सिमट कर रह गया है। करुणा का अर्थ संकुचित हो गया है, काफी सीमित हो गया है। करुणा और दया का अर्थ इतना ही नहीं है कि कुछ कीडोंमकोडों की रक्षा करली जाए, कुछ बकरों और गायों को कसाई के हाथों से छुड़ा लिया जाए और अमुक तीर्थक्षेत्रों में मछली मारने के ठेके बन्द कर दिए जाएँ। अहिंसकसपाज-रचना की भावना जो आज हमारे समक्ष चल रही है, उसका मूल अभिप्राय समझना चाहिए। यह ठीक है कि पशु-दया भी करुणा का एक रूप है, पर करुणा और अहिंसा की यहीं पर इतिश्री नहीं हो जानी चाहिए, यह तो प्रारम्भ है। उसका क्षेत्र बहुत व्यापक और बहुत विशाल है। हमें व्यापक दृष्टिकोण लेकर आगे बढ़ना है। अपने मन की करुणा को आस-पास समाज एवं परिवार में बाँटते चलो। जो सुखसाधना और उपलब्धियाँ आपके पास हैं, उन्हें समाज के कल्याण-मार्ग में लगाते चलो। समाज की सेवा में समर्पण का जो दृष्टिकोण है, वह एक व्यापक दृष्टिकोण है। व्यक्ति सामाजिक जीवन के दूर किनारों तक अपने वैयक्तिक जीवन की लहरों को फैलाता चलता है, उन्हें समाज के साथ एकाकार करता चलता है। वह जितना ही आगे बढ़ेगा, जितना ही अपने सुख को समाज के सुख के साथ जोड़ता चलेगा, उतना ही व्यापक बनता चला जाएगा। व्यक्तिभाव का क्षुद्र घेरा तोड़कर समाजभाव एवं विश्वभाव के व्यापक क्षेत्र में उतरता जाएगा। ___ वैदिक दर्शन में ईश्वर को सर्वव्यापक माना गया है। वह व्यापकता शरीरदृष्टि से है, अथवा आत्मा-दृष्टि से या भाव-दृष्टि से है ? चूँकि यह भी माना गया है कि हर आत्मा परमात्मा बन सकती है। प्रत्येक आत्मा में जब परमात्मा बनने की योग्यता है, तो वस्तुतः आत्मा ही ईश्वर है। आत्मा आवरण से घिरी हुई है, इसलिए जो अखण्ड आनन्द का स्रोत है, वह अभी दबा हुआ है, और जो प्रकाश है, वह अभी संकीर्ण हो गया है, सीमित हो गया है और धुंधला हो गया है। इस प्रकार दो बातें हमारे सामने आती हैं। एक यह कि प्रत्येक आत्मा परमात्मा बन सकती है, और दुसरी यह कि परमात्मा सर्वव्यापक है। जैन दृष्टिकोण के साथ इसका समन्वय करें, तो मात्र कुछ शब्दों के जोड़-तोड़ के सिवा और कोई विशेष अन्तर नहीं दिखाई देगा। हमारे पास समन्वय बुद्धि है, अनेकान्त दृष्टि है और यह दृष्टि तोड़ना नहीं, जोड़ना सिखाती है-सत्य को खण्डित करना नहीं, बल्कि पूर्ण करना बताती है। सर्वव्यापक शब्द को हम समन्वय बुद्धि से देखें, तो इसका अर्थ होगा, आत्मा अपने स्वार्थों से निकल कर आसपास की जनता के, समाज तथा देश के और अन्ततः विश्व के प्राणियों के प्रति जितनी दूर तक दया, करुणा और सद्भावना की धारा बहाती चली जाती है, प्रेम और समर्पण की वृत्ति जितनी दूर तक जगाती चली जाती है, उतनी ही वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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