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नारी जीवन का अस्तित्व | ४७५ उदार भावना दबी न रह सकी। उन्होंने ब्राह्मण को बिठलाया और आश्वासन देते हुए कहा—अच्छा भैया, बैठो, मैं अभी आता हूँ।
माघ घर में गये। इधर-उधर देखा तो कुछ न मिला। अब उनके पश्चात्ताप का कोई पार न रहा। सोचने लगे—'माघ! आज क्या तू घर आये याचक को खाली हाथ लौटा देगा? नहीं, आज तक तूने ऐसा नहीं किया है। तेरी प्रकृति यह सहन नहीं कर सकती। किन्तु किया क्या जा सकता है ? कुछ हो देने को तब तो!' ।
माघ विचार में डूबे इधर-उधर देख रहे थे। कुछ उपाय नहीं सूझता था। आखिर एक किनारे सोई हुई पत्नी की ओर उनकी दृष्टि गई। पत्नी के हाथों में सोने के कंगन चमक रहे थे। सम्पत्ति के नाम पर वही कंगन उसकी सम्पत्ति थे।
माघ ने सोचा-कौन जाने माँगने पर यह दे या न दे! इसके पास और कोई. धन-सम्पत्ति तो है नहीं, कोई अन्य आभूषण भी नहीं। यही कंगन हैं, तो शायद देने से इन्कार कर दे ! संयोग की बात है कि यह सोई हुई है। अच्छा अवसर है। क्यों न चुपचाप एक निकाल लिया जाए!
माघ दो कंगनों में से एक को निकालने लगे। कंगन सरलता से खुला नहीं और ज़ोर लगाया तो थोड़ा झटका लग गया। पत्नी की निद्रा भंग हो गई। वह चौंक कर जगी और अपने पति को देखकर बोली-आप क्या कर रहे थे ?
माघ-कुछ नहीं, एक सामान टटोल रहा था। पत्नी-नहीं, सच कहिए। मेरे हाथ में झटका किसने लगाया ? माघ—झटका तो मुझी से लग गया था। पत्नी-तो आखिर बात क्या है ? तो क्या आप कंगन खोलना चाहते थे ? माघ–हाँ, तुम्हारा सोचना सही है। पत्नी–लेकिन किसलिए?
माघ–एक गरीब ब्राह्मण दरवाजे पर बैठा है। वह बड़ी आशा लेकर यहाँ आया है। वह बड़ा गरीब है। उसके एक जवान लड़की है, जिसकी शादी उसे करनी है, किन्तु करे तो कैसे ? पास कुछ हो तब तो! सो वह अपने घर कुछ पाने की आशा से आया है। मैंने देखा, घर में कुछ भी ऐसा नहीं है, जो उसे दिया जा सके। तब तुम्हारा कंगन नजर आया और यही खोलकर उसे दे देने को सोचा। मैंने तुम्हें जगाया नहीं, क्योंकि मुझे भय था कि कहीं तुम कंगन देने से इन्कार न कर दो।
पत्नी-तब तो आप चोरी कर रहे थे!
माघ–हाँ, बात तो सही ही है, पर करता क्या ? दूसरा कोई चारा भी तो नहीं .. था।
पत्नी—मुझे आपके साथ रहते इतने वर्ष हो गये, किन्तु देखती हूँ, आप आज तक मुझे नहीं पहचान सके! आप तो एक ही कंगन ले जाने की सोच रहे थे, कदाचित्
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