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शिक्षा और विद्यार्थी-जीवन ४४९ संसार की विराटता और जिज्ञासा :
मनुष्य ने संसार को जो विराट रूप प्रदान किया, उसके मूल में उसकी जिज्ञासा ही प्रधान रही है। ऐसी प्रबल जिज्ञासा मनुष्य में ही पाई जाती है, अतएव विद्यार्थी का पद भी मनुध्य को ही मिला है। देवता भले कितनी ही ऊँचाई पर क्यों न रहते हों, उसका भी विद्यार्थी का महिमावान पद प्राप्त नहीं है। यह तो मनुष्य ही है जो विचार और प्रकाश लेने को आगे बढ़ा है और जो अपने मस्तिष्क के दरवाजे खोलकर दूसरों से प्रकाश लेने और देने के लिए आगे आया है।
___ मनुष्य एक विराट् शक्तिकेन्द्र है। वह केवल हड्डियों का ढाँचामात्र नहीं है. जो सिर को ऊपर ठाए दो पैरों के बल पर खड़ा हो गया हो। वह केवल शरीर को ऊँचा बनाने के लिए नहीं है, बल्कि उसमें देने को भी बहुत कुछ भरा है। मानव की विकासकालीन बाहय परिस्थितियाँ :
आप देखें और सोचें कि कर्मभूमि के प्रारम्भ में, जब मनुष्य-जाति का विकास प्रारम्भ हुआ था, तब मनुष्य को क्या मिला था ? भगवान् ऋषभदेव के समय में उसको केवल बड़े-बड़े मैदान, लम्बी-चौड़ी पृथ्वी और नदी-नाले ही तो मिले थे। मकान के नाम पर एक झोंपड़ी भी नहीं थी और न वस्त्र के नाम पर एक धागा ही था। रोटी पकाने के लिए न अन्न का एक दाना था, न बर्तन थे, न चूल्हा था, न चक्की थी। कुछ भी तो नहीं था। मतलब यह कि एक तरफ मनुष्य खड़ा था और दूसरी तरफ थी सृष्टि, जो मौन और चुप थी! पृथ्वी और आकाश दोनों ही मौन थे।
उसके बाद इतना विराट् संसार खड़ा हुआ और नगर बस गए। मनुष्य ने नियन्त्रण कायम किया और उत्पादन की ओर गति की। मनुष्य ने स्वयं खाया और सारे जग को खिलाया। स्वयं के तन ढंकने के साथ दूसरों के भी तन ढाँके और, उसने इसी दुनिया में ही तैयारी नहीं की, प्रत्युत उसके आगे का भी मार्ग तय किया। अनन्त-अनन्त भूत और भविष्य की बातें खरी हो गईं और विराट चिन्तन हमारे सामने प्रस्तुत हो गया।
वह समय युगलियों का था। वह ऐसा काल था, जब मनुष्य पृथ्वी पर पशुओं की भाँति घूम रहा था। उसके मन में इस दुनिया को अथवा अगली दुनिया को बनाने का कोई प्रश्न न था। फिर यह सब कहाँ से आ गया ? स्पष्ट है, इसके मूल में मनुष्य की प्रगतिशील भावना ही काम कर रही थी। उसने युगों से प्रकृति के साथ संघर्ष किया और एक दिन उसने प्रकृति और पृथ्वी पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर ही लिया, एक नई सृष्टि बनाकर खड़ी कर दी।
मनुष्य को बाहर की प्रकृति से ही नहीं, अन्दर की प्रकृति से भी लड़ना पड़ा अर्थात् अपनी क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह आदि वासनाओं से भी खूब लड़ना पड़ा। उसने अपने हृदय को खोल कर देख लिया और समझ लिया कि यह हमारे कल्याण
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