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४२८ चिंतन की मनोभूमि दी। तब इन्द्र ने लक्ष्मी से पूछा-आजकल आप कहाँ विराजती हैं ? लक्ष्मी ने कहाआजकल का प्रश्न क्यों ? मैं तो जहाँ रहती हूँ, वहीं सदा रहती हूँ। मैं ऐसी भगोड़ी नहीं कि कभी कहीं और कभी कहीं रहूँ! और हमेशा रहने की अपनी तो एक ही जगह है
"इन्द्र ! मैं वहाँ रहती हूँ जहाँ प्रेम का अखण्ड राज्य है, जिस परिवार एवं समाज में आपस में कलह नहीं है। मैं उन लोगों के पास रहती हूँ,जो लोग प्रेमपूर्वक मिल-जुल कर काम करते हैं। एक-दूसरे के सहकारी बन कर जहाँ लोग अपनी जीवन-यात्रा की तैयारी करते हैं। जहाँ आपस में संगठन है और जो एक-दसरे के लिए अपने स्वार्थ को निछावर कर देने को तैयार रहते हैं और अपनी इच्छाओं को भी कुचलने के लिए तैयार रहते हैं, जहाँ प्रेम की जीवनदायिनी धाराएँ निरन्तर बहती रहती हैं, जहाँ कलह, घृणा और द्वेष नहीं होता, मैं उसी जगह निवास करती हूँ।''१
लक्ष्मी के इस कथन ने अनन्त-अनन्त काल के प्रश्न हल कर दिए हैं। बड़ी सुन्दर बात कही है ! यह तो संसार के लिए एक महान आदर्श वाक्य है। वास्तव में लक्ष्मी ने अपनी ठीक जगह बतला दी है। बड़े-बड़े परिवारों को देखा है, जहाँ लक्ष्मी के ठाट लगे रहते थे। किन्तु जब उन परिवारों में मनमुटाव आया, क्रोध की आग जलने लगी, वैर-भाव पैदा हो गया, तो वह वैभव और आनन्द बना नहीं रह पाया। धीरे-धीरे वह क्षीण होने लगा और लक्ष्मी रूठ कर चल दी।
१. गुरवो यत्र पूज्यन्ते, वाणी यत्र सुसंस्कृता।
अंदन्तकलहों यत्र, तत्र शक! वसाम्यहम्॥
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