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मानव-जीवन की सफलता
इस संसार में जीवन-शक्ति की अभिव्यक्ति अनन्त-अनन्त रूपों में होती है। पशु, पक्षी, देव और मनुष्य तथा कीट-पतंग आदि के रूप में जीवन के अनन्त प्रकार इस अनन्त संसार में उपलब्ध होते हैं। जन्म, जीवन और मरण इन तीन शब्दों में व्यक्ति की सम्पूर्ण कहानी समाप्त हो जाती है। जन्म और मरण के मध्य में जो कुछ है, उसे ही हम जीवन की संज्ञा प्रदान करते हैं। जीवन की कहानी बहुत ही पुरानी है। इतनी पुरानी, जिसके आदि का पता नहीं लग रहा है। पता तो तब लगे, जबकि उसकी आदि हो। अभिप्राय यह है, कि जीवन की कहानी अनन्त-अनन्त काल से चल रही है। कभी स्वर्ग में, कभी नरक में, कभी मनुष्य में और कभी तिर्यञ्च में, यह आत्मा जन्म और मरण को प्राप्त करती चल रही है। अनन्त-अनन्त पुण्योदय से आत्मा को मानव-तन उपलब्ध होता है। सृष्टि में जीवन तो अनन्त है, परन्तु उनमें सर्वश्रेष्ठ जीवन मानव-जीवन ही है, क्योंकि इस जीवन में ही व्यक्ति आध्यात्मिक साधना कर सकता है। इसी आधार पर भारत के धर्म, दर्शन और संस्कृति में मानवजीवन को दुर्लभ कहा गया है। भगवान् महावीर ने कहा है-'माणुस्सं ख सदल्लहं।' इस अनन्त संसार में और उसके जीवन के अनन्त प्रकारों में मानव-जीवन ही सबसे अधिक दुर्लभ है। आचार्य शंकर भी अपने विवेकचूड़ामणि ग्रन्थ में मानवजीवन को दुर्लभ कहते हैं। भारतीय संस्कृति में मानव-जीवन को जो दुर्लभ कहा गया, उसका एक विशेष अभिप्राय है। वह अभिप्राय क्या है ? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि मनुष्य-जीवन इस प्रकार का जीवन है कि जिसमें भयंकर से भयंकर पतन भी सम्भव है और अधिक से अधिक पवित्र एवं उज्ज्वल उत्थान भी संभव है। मनुष्य-जीवन की उपयोगिता तभी है, जबकि उसे प्राप्त करके उसका सदपयोग किया जाए और अधिकाधिक अपनी आत्मा का हित साधा जाए, अन्यथा मनुष्य-जीवन प्राप्त करने का कोई लाभ न होगा। मनुष्य तो राम भी थे और मनुष्य रावण भी था, किन्तु फिर भी दोनों के जीवन में बहुत बड़ा अन्तर था। पुण्य के उदय से मनुष्य-जीवन राम ने भी प्राप्त किया था और पुण्य के उदय से मनुष्य-जीवन रावण ने भी प्राप्त किया था। यह नहीं कहा जा सकता कि राम को जो मनुष्य-जीवन मिला, वह तो पुण्योदय से मिला और रावण को जो मनुष्य जीवन मिला था, वह पाप के उदय से मिला था, क्योंकि शास्त्रकारों ने मनुष्यमात्र के जीवन को पुण्य का फल बतलाया है। इस दृष्टि से राम और रावण के मनुष्य-जीवन में स्वरूपतः किसी प्रकार का भेद नहीं है, भेद है केवल उसके उपयोग का, उसके प्रयोग का। राम ने अपने मनुष्य जीवन को लोक-कल्याण में एवं जनहित में व्यतीत किया था। इसी आधार पर
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