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________________ व्यक्ति और समाज ४०५ जब संकुचित दृष्टि का चश्मा हटता है, अपनी इच्छाओं और सद्भावनाओं को मानव विराट् एवं व्यापक रूप देता है, तो उसकी नजरों में अनन्त अतीत उतर आता है, साथ-साथ अनन्त भविष्य की कल्पनाएँ भी दौड़ उठती हैं। वह क्षुद्र से विराट होता चला जाता है, सहयोग और ोह के सूत्र से सृष्टि को अपने साथ बाँधने लगता है। आध्यात्म की भाषा में वह जीव से ब्रह्म की ओर, आत्मा से परमात्म तत्त्व की ओर अग्रसर होता है। अग्नि की जो एक क्षुद्र चिनगारी थी, वह विराट् ज्योति के रूप में प्रकाशमान होने लगती है। यही व्यक्ति से समाज की ओर तथा जीवन से ब्रह्म की ओर बढ़ना है। जो अपनी क्षुद्र दैहिक इच्छाओं और वासनाओं में सीमित रहता है, वह क्षुद्र-संसार प्राणी की कोटि में आता है, किन्तु जब वही आगे बढ़कर अपने स्वार्थ को, इच्छा और भावना को विश्व के स्वार्थ (लाभ) में विलीन कर देता है, अनन्त के प्रति अपने आपको अर्पित कर देता है, हृदय के असीम स्नेह, करुणा एवं दया को अनन्त प्राणियों के प्रति अर्पित कर देता है तब वह विराट रूप धारण कर . लेता है। व्यक्ति की भमिका में विराट समाज चेतना का दर्शन होने लगता है। 'स्व' के विस्तार का यह उपक्रम ही व्यक्ति को समाज के रूप में और आत्मा को परमात्मा के रूप में उपस्थित करता है। भारत की महान् दार्शनिक परम्परा में ईश्वर को परम व्यापक माना गया है। यद्यपि दार्शनिक जगत् में ईश्वर की सर्वव्यापकता एक गुत्थी बनी हुई है, किन्तु यदि इस गुत्थी को इस रूप में सुलझाया जाय कि जब आत्मा में दया और करुणा की अनन्त-धाराएँ फूटती हैं और वह सष्टि के अनन्त जीवों को अपनी करुणा में ओतप्रोत देखने लग जाता है, तो आत्मा सृष्टि में व्यापक हो जाती है, विराट् हो जाती है। स्नेह और करुणा का अनन्त प्रवाह संसार में सब ओर तटस्थ भाव से बहने लगता है। सृष्टि के अनन्तानन्त प्राणियों में वह उसी चैतन्य को देखता है जो स्वयं उनमें भी विद्यमान है, सब में उसी सुख और आनन्द की कामना के दर्शन करता है, जो उसके हृदय में जग रही है। इस प्रकार वह विराट और सर्वव्यापक रूप धारण कर लेती है। मेरे विचार में और सिर्फ मेरे ही नहीं, बल्कि जैन दर्शन के विचार में, ईश्वर इसी भावात्मक रूप में सर्वव्यापक है। शब्दों का जोड़-तोड़ कुछ और भी हो सकता है, हम सर्वव्यापक की जगह सर्वज्ञाता और सर्वद्रष्टा भी कह सकते हैं, चूँकि प्राणिमात्र में अपने समान चैतन्य देवता के दर्शन करना, उनकी सुख-दुःख की धारणाओं को आत्म-तुल्य समझना—यही तो हमारे ईश्वरत्व पाने वाले महामानवों का सर्वव्यापक, सर्वज्ञता और सर्वद्रष्टा अनन्त चैतन्य है। मनुष्य का विकास क्रम, या यों कहें कि उसकी मनुष्यता का विकास-क्रम यदि देखा जाए, तो ज्ञात होगा कि वह किस प्रकार क्षुद्र से विराट् स्थिति तक पहुंचा है। एक असहाय शरीर ने जन्म धारण किया तो आसपास में जो अन्य सक्षम शरीरधारी थे, वे उसे सहयोग करने लगे, उसके सुख-दुःख में भाग बंटाने लगे। इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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