________________
३९२ चिंतन की मनोभूमि
और संसार त्याग कर के चल दिए । महाकवि कालिदास ने रघुवंशी राजाओं का वर्णन करते हुए कहा है
44.
'शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम् । वार्द्धक्ये मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम् ॥"
बचपन में विद्याओं का अभ्यास करते रहे, शास्त्रविद्या भी सीखी और शस्त्रविद्या भी । यौवन की चहल-पहल हुई तो विवाह किया, गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया। न्याय और नीति के आधार पर प्रजा का पालन किया। जब जवानी ढलने लगी, बुढ़ापे की छाया आने लगी तो यह नहीं कि राज सिंहासन से चिपटे रहे, भोगों में फँसे रहे । राज सिंहासन अपने उत्तराधिकारी को सौंपा और मुनिवृत्ति स्वीकार करके चल पड़े। गृह और राज्य से मुक्त होना ही मात्र उनका कोई ध्येय नहीं था । उस निवृत्ति के साथ ही आत्मा की प्रवृत्ति भी निहित थी ।
त्याग की संस्कृति :
जनता
जिनके जीवन में प्रतिष्ठा और महत्ता का आधार त्याग, चरित्र एवं प्रेम रहा है, वे चाहे राजसिंहासन पर रहें या जंगल में रहें, जनता के दिलों में बसे रहे हैं, उन्हें श्रद्धा से सिर झुकाती रही है। भारतीय संस्कृति में जनक का उदाहरण हमारे सामने है । जनक के जीवन का आधार साम्राज्य या वैभव नहीं रहा है, बल्कि त्याग, तप, न्यायनिष्ठा और जनता की सेवा का रहा है, इसीलिए वे जनता के पूज्य भी बन पाए। जनता ने उसका नाम भी 'जनक' अर्थात् पिता रख दिया, जबकि उसका वास्तविक नाम कुछ और ही था । वह राजमहलों में रहा, फिर भी उसका जीवनदर्शन जनता के प्रेम में था, प्रजा की भलाई में था। वह वास्तव में ही प्रजा का जनक अर्थात् पिता था।
हमारी संस्कृति धन, ऐश्वर्य या सत्ता की प्रतिष्ठा में विश्वास नहीं करती है। हमारे यहाँ महल और बँगलों में रहने वाले महान् नहीं माने गये हैं। रेशमी और बहुमूल्य वस्त्र पहनने वालों का आदर नहीं हुआ है, बल्कि अकिंचन भिक्षुओं की प्रतिष्ठा रही है । झोंपड़ी और जंगल में रहने वालों की पूजा हुई है और बिल्कुल सादे, जीर्ण-शीर्ण वस्त्र पहनने वालों पर जनता उत्सर्ग होती रही है।
स्वामी विवेकानन्द जब अमेरिका में गये, तो एक साधारण संन्यासी की वेशभूषा में ही गये। लोगों ने उनसे कहा- " यह अमेरिका है, संसार की उच्च सभ्यता वाला देश है, आप जरा ठीक से कपड़े पहनिए ।
विवेकानन्द ने इसके उत्तर में कहा- "ठीक है, आपके यहाँ की संस्कृति दर्जियों की संस्कृति रही है, इसलिए आप उन्हीं के आधार पर वस्त्रों की काटछाँट एवं बनावट के आधार पर ही सभ्यता का मूल्यांकन करते हैं। किन्तु जिस देश में मैंने जन्म लिया है, वहाँ की संस्कृति मनुष्य के निर्मल चरित्र एवं उच्च आदर्शों पर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org