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________________ संस्कृति और सभ्यता ३९१ नोटों का ढेर लगा है, जिसके हाथ में सत्ता है, शासन है, वह यदि चरित्रहीन और दुराचारी भी होगा तो भी उसे सम्मान और प्रतिष्ठा मिलती रहेगी, समाज उसकी जय-जयकार करता रहेगा, सैकड़ों लोग उसकी कुर्सी की परिक्रमा करते रहेंगे। चूँकि सारी प्रतिष्ठा उसकी तिजोरी में बन्द हो गई है या कुर्सी के चारों पैरों के नीचे दुबकी बैठी है। संस्कृति के ये आधार न तो स्थायी हैं और न सही ही हैं। धन और सत्ता के आधार पर प्राप्त होने वाली प्रतिष्ठा कभी स्थायी नहीं होती। वह इन्द्रधनुष की तरह एक बार अपनी रंगीन छटा से संसार को मुग्ध भले ही कर ले, किन्तु कुछ काल के बाद उसका कोई अस्तित्त्व आसमान और धरती के किसी कोने में नहीं मिल सकता। यदि धन को स्थायी प्रतिष्ठा मिली होती, तो आज संसार में धनकुबेरों के मन्दिर बने मिलते। उनकी पूजा होती रहती। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती और रावण जैसों की मालाएँ फेरी जाती, जरासन्ध और दुर्योधन को संसार आदर्श पुरुष मानता। जिनकी सोने की नगरी थी, जिनके पास अपार शक्ति थी, सत्ता थी, अपने युग में उन्हें प्रतिष्ठा भी मिली थी, ख्याति भी मिली थी। पर याद रखिए, प्रतिष्ठा और ख्याति मिलना दूसरी बात है— श्रद्धा मिलना कुछ और बात है । जनश्रद्धा उसे मिलती है जिसके पास आत्मश्रद्धा होती है, चरित्र होता है। ख्याति, प्रशंसा और प्रतिष्ठा क्रूरता से भी मिल सकती है, मिली भी है, पर युग के साथ उनकी ख्याति के बुलबुले भी समाप्त हो गए, उनकी प्रतिष्ठा आज खंडहरों में सोयी पड़ी है। __ मनुष्य के मन की यह सबसे बड़ी दुर्बलता है कि वह इस बाह्य प्रतिष्ठा के बहाव में अन्धा होकर बहता चला जा रहा है। सिंहासन की होड़ : मैं देखता हूँ, सिंहासनों की होड़ में मनुष्य अंधा होकर चला है। सम्राट अजातशत्रु बड़ा ही महत्त्वाकांक्षी सम्राट हो गया है। युवावस्था में प्रवेश करते ही उसकी महत्त्वाकांक्षाएँ सुरसा की भाँति विराट रूप धारण कर लेती हैं। सोचता है"बाप बूढ़ा हो गया है। चलता-चलता जीवन के किनारे पहुंच गया है। अभी तक तो सिंहासन मुझे कभी का मिल जाना चाहिए था। मैं अभी युवक हूँ, भुजाओं में भी बल है। बुढ़ापे में साम्राज्य मिलेगा तो क्या लाभ ? कैसे राज्य विस्तार कर सकूँगा ? कैसे साम्राज्य का आनन्द उठा सकूँगा ?" बस, वह राज्य के लिए बाप को मारने की योजना बनाता है। सिंहासन के सामने पिता के जीवन का कोई मूल्य नहीं रह जाता श्रेणिक भी बूढ़ा हो गया है, पर मरना तो किसी के हाथ की बात नहीं। गृहस्थाश्रम का त्याग उसने किया नहीं। कभी-कभी सोचा करता हूँ कि भारत की यह पुरानी परम्परा कितनी महत्त्वपूर्ण थी कि बुढ़ापा आ गया, शरीर अक्षम होने लगा, तो नई पीढ़ी के लिए मार्ग खोल दिया "आओ ! अब तुम इसे संभालो, हम जाते हैं।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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