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________________ ३८६ चिंतन की मनोभूमि विचार में भारतीय समाज को स्वस्थता प्रदान करने के लिए ब्राह्मण और श्रमण दोनों की आवश्यकता रही है और अनन्त भविष्य में भी दोनों की आवश्यकता रहेगी। आवश्यकता है, केवल दोनों के दृष्टिकोण में संतुलन स्थापित करने की और समन्वय साधने की। वस्तुतः यही भारतीय संस्कृति है। भारतीय संस्कृति का स्वरूप : भारत के जन-जीवन की संस्कृति का रूप सामासिक एवं सामूहिक रहा है और उसका विकास भी धीरे-धीरे हुआ है। इतिहास के कुछ विद्वान यह भी दावा करते हैं कि भारतीय संस्कृति का प्रारम्भ आर्यों के आगमन के साथ हुआ था। किन्तु यह विचार समीचीन नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि जिन्होंने 'हड़प्पा' और 'मोहनजोदड़ो' की सभ्यता और संस्कृति का अध्ययन किया है, वे इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि तथाकथित एवं तथाप्रचारित आर्यों के आगमन से पूर्व भी भारतीय सभ्यता और संस्कृति बहुत ऊँची उठ चुकी थी। हाँ, इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि आर्यों के यहाँ आने के बाद और उनके यहाँ स्थापित हो जाने के बाद आर्यों और द्रविड़ों के मिलन, मिश्रण और समन्वय से जिस समवेत संस्कृति का जन्म हुआ था, वस्तुतः वही भारत की प्राचीनतम संस्कृति और कुछ अर्थ में मूल संस्कृति भी कही जा सकती है। यह स्मरणीय है कि हमारी राष्ट्रीय संस्कृति ने धीरे-धीरे बढ़कर अपना वर्तमान आकार ग्रहण किया है, जिसमें भारत के मूल निवासी द्रविड़ों, आर्यों, शक एवं हूणों तथा मुसलमान और ईसाइयों का धीरेधीरे योगदान मिलता रहा है। यह बात तो सत्य है कि भारत की प्राचीन संस्कृति में समन्वय करने की तथा नये उपकरणों को पचाकर आत्मसात् करने की अद्भुत योग्यता थी। जब तक इसका यह गुण शेष रहा, तब तक यह संस्कृति जीवित और गतिशील रही, लेकिन बाद में इसकी गतिशीलता स्थिरता में परिणत हो गई। स्थिरता भी बुरी नहीं थी। परन्तु, वह आगे चलकर रूढ़िवादिता में परिणत हो गई। काफी लम्बे इतिहास के अन्तराल में भूगोल ने भारत को जो रूप दिया, उससे वह एक ऐसा विशाल देश बन गया, जिसके दरवाजे बाहर की ओर से बन्द थे क्योंकि महासागर और महाशैल हिमालय से घिरा होने के कारण बाहर से किसी का इस देश में आना आसान नहीं था। फिर भी जो कुछ लोग साहस करके यहाँ पर आए, वे यहीं के होकर रह गए। उदाहरण के लिए, सीथियन और हूण लोग तथा उनके बाद भारत में आने वाली कुछ अन्य जातियों के लोग यहाँ आकर राजपूत जाति की शाखाओं में घुल-मिल गए और यह दावा करने लगे कि हम भी प्राचीन भारत की सन्तान हैं। भारत की संस्कृति जन-जन की संस्कृति रही है और इसीलिए वह सदा से उदार और सहिष्णु रही है। यहाँ पर सबका समादर होता रहा है। जिसे हम भारतीय संस्कृति कहते हैं, वह आदि से अन्त तक न तो आर्यों की रचना है और न केवल द्रविड़ों का ही प्रयत्न है। बल्कि उसके भीतर अनेक जातियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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