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ब्रह्मचर्य : सिद्धान्त एवं साधना |३५५/ खाने की तरह सुनने, देखने एवं बोलने पर भी संयम रखना आवश्यक है। उन्हें ऐसे शृङ्गारिक एवं अश्लील गीत न गाने चाहिए और न सुनने चाहिए जिससे सुषुप्त वासना जाग्रत होती हो। उन्हें अश्लील एवं असभ्य हँसी-मजाक से भी बचना चाहिए। उन्हें न तो अश्लील सिनेमा एवं नाटक देखना चाहिए और न ऐसे भद्दे एवं गन्दे उपन्यासों एवं कहानियों को पढ़ने में समय बर्बाद करना चाहिए।
अश्लील गीत, असभ्य हँसी-मजाक, शृङ्गारिक सिने-चित्र और गन्दे उपन्यास देश, समाज एवं धर्म के भावी कर्णधार बनने वाले युवक-युवतियों के हृदय में वासना की आग भड़काने वाले हैं। कुलीनता और शिष्टता के लिए खुली चुनौती हैं और समग्र सामाजिक वायुमण्डल को विषाक्त बनाने वाले हैं। अतः प्रत्येक सद्गृहस्थ का यह परम कर्तव्य है कि वह इस संक्रामक रोग से अवश्य ही बचकर रहे। विवाह और ब्रह्मचर्य :
विवाह वासना को नियंत्रित करने का एक साधन है। यह एक मरहम (Ointment) है और मरहम का उपयोग उसी समय किया जाता है, जब शरीर के किसी अंग-प्रत्यंग पर जख्म हो गया हो। परन्तु घाव के भरने के बाद कोई भी समझदार व्यक्ति शरीर पर मरहम लगाकर पट्टी नहीं बाँधता क्योंकि मरहम सुख का साधन नहीं बल्कि रोग को शान्त करने का उपाय है। इसी तरह विवाह वासना के उद्दाम वेग को रोकने के लिए, विकारों के रोग को क्षणिक-उपशान्त करने के लिए है, न कि उसे बढ़ाने के लिए। अतः दाम्पत्य जीवन भी अमर्यादित नहीं, मर्यादित होना चाहिए। उन्हें सदा भोगों में आसक्त नहीं रहना चाहिए। अस्तु दाम्पत्य जीवन में भी परस्पर ऐसी मर्यादाहीन क्रीड़ा नहीं करनी चाहिए, जिससे वासना को भड़कने का प्रोत्साहन मिलता हो। अतः श्रावक को भगवत्स्मरण करते हुए नियत समय पर सोना चाहिए, नियत समय पर ही उठना चाहिए और विवेक को नहीं भूलना चाहिए।
__'विवाह' शब्द का क्या अर्थ है? यह संस्कृत भाषा का शब्द है। 'वि' का अर्थ है—विशेष रूप से और 'वाह' का अर्थ है-वहन करना या ढोना। तो विशेष रूप से एक दूसरे के उत्तरदायित्व को वहन करना, उसकी रक्षा करना, विवाह कहलाता है। स्त्री, पुरुष के जीवन के सुख-दुःख एवं दायित्व को वहन करने की कोशिश करे और पुरुष, स्त्री के सुख-दुःख को एवं जवाब-देही को वहन करने की कोशिश करे।
केवल वहन करना ही नहीं है, किन्तु विशेष रूप से वहन करना है, उठाना है, निभाना है और अपने उत्तरदायित्व को पूरा करना है। इतना ही नहीं, अपने जीवन की आहुति देकर भी उसे वहन करना है।
जैन-धर्म की दृष्टि में विवाह जीवन का केन्द्रीकरण है असीम वासनाओं को सीमित करने का मार्ग है, पूर्ण संयम की ओर अग्रसर होने का कदम है और पाशविक जीवन से निकल कर नीतिपूर्ण मर्यादित मानव-जीवन को अंगीकार करने का साधन है। जैनधर्म में विवाह के लिए जगह है, परन्तु पशु-पक्षियों की तरह भटकने के लिए
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