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________________ ३५४ चिंतन की मनोभूमि भगवान् महावीर ने साधना के दो रूप बताए हैं-- १. वासनाओं पर पूर्ण नियंत्रण और २. वासनाओं का केन्द्रीकरण या यों कहिए - पूर्ण ब्रह्मचर्य और आंशिक ब्रह्मचर्य। जो साधक पूर्ण रूप से वासनाओं पर नियंत्रण करने की क्षमता नहीं रखता है, वह यदि यथावसर वासना के स्रोत को निर्धारित दिशा में बहने के लिए उसका द्वार खोल देता है, तो कोई भयंकर पाप नहीं करता है । वह उच्छृङ्खल रूप से प्रवहमान वासना के प्रवाह को केन्द्रित करके अपने को भयंकर अधःपतन से बचा लेता है 1 जैन-धर्म की दृष्टि से विवाह वासनाओं का केन्द्रीकरण है। असीम वासनाओं को सीमित करने का मार्ग है। नीतिहीन पाशविक जीवन से मुक्त होकर, नीतियुक्त मानवीय जीवन को स्वीकार करने का साधन है। पूर्ण ब्रह्मचर्य की ओर बढ़ने का कदम है अत: जैन-धर्म में विवाह के लिए स्थान है, परन्तु पशु-पक्षियों की तरह अनियंत्रित रूप से भटकने के लिए स्थान नहीं है । वेश्यागमन और परदार सेवन के लिए कोई छूट नहीं है। जैन धर्म वासना को केन्द्रित एवं मर्यादित करने की बात को स्वीकार करता है और साधक की शक्ति एवं अशक्ति को देखते हुए विवाह को अमुक अंशों में उपयुक्त भी मानता है । परन्तु वह वासनाओं को उच्छृङ्खल रूप देने की बात को बिल्कुल उपयुक्त नहीं मानता। वासना का अनियंत्रित रूप, जीवन की बर्बादी है, आत्मा का पतन है । - वासना को केन्द्रित करने के लिए प्रत्येक स्त्री-पुरुष (गृहस्थ ) के लिए यह आवश्यक है कि वह जिसके साथ विवाह बन्धन में बँध चुका है या बँध रहा है, उसके अतिरिक्त प्रत्येक स्त्री-पुरुष को वासना की दृष्टि से नहीं, भ्रातृत्व एवं भगिनीत्व की दृष्टि से देखे। भले ही वह स्त्री या पुरुष किसी के द्वारा गृहीत हो या अंगृहीत हो, अर्थात् वह विवाहित हो या अविवाहित, विवाहानन्तर परित्यक्त हो या परित्यक्ता, श्रावक एवं श्राविका का उसके साथ पवित्र सम्बन्ध रहता है। वह कभी भी उसे अपवित्र दृष्टि से नहीं देखता । श्रावक-श्राविका के लिए यह भी आवश्यक है कि वे स्पर्श- इन्द्रियजन्य वासना पर ही नहीं, प्रत्युत अन्य इन्द्रियों पर भी नियंत्रण रखें। उन्हें ऐसे पदार्थों को नहीं खाना चाहिए, जो वासना की आग को प्रज्ज्वलित करने वाले हैं। उनका खाना स्वाद के लिए नहीं बल्कि साधना के लिए, शरीर को स्वस्थ रखने के हेतु है । इसलिए उन्हें खाना खाते समय सदा मादक वस्तुओं से, अधिक मिर्च मसालेदार पदार्थों से, तामस पदार्थों से एवं प्रकाम भोजन से बचना चाहिए । उनकी खुराक नियमित होनी चाहिए और उन्हें पशु-पक्षी की तरह जब चाहा तब नहीं, प्रत्युत नियत समय का ध्यान रखना चाहिए। इससे स्वास्थ्य भी नहीं बिगड़ता और विकार भी कम जाग्रत होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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