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ब्रह्मचर्य : सिद्धान्त एवं साधना | ३५१ के जंगल में ही भटकता रहता है, वह अन्दर की ओर नहीं जाता । अन्तर्मुख मन ही ब्रह्मचर्य का साधक हो सकता है। विषयोन्मुख मन सदा चञ्चल बना रहता है। ब्रह्मचर्य की परिधि:
- भारतीय धर्म और संस्कृति में, साधना के अनेक मार्ग विहित किए गए हैं, किन्तु सर्वाधिक श्रेष्ठ और सबसे अधिक प्रखर साधना का मार्ग, ब्रह्मचर्य की साधना है। 'ब्रह्मचर्य' शब्द में जो शक्ति, जो बल, और जो पराक्रम निहित है, वह भाषाशास्त्र के किसी अन्य शब्द में नहीं है। वीर्य-रक्षा ब्रह्मचर्य का एक स्थूल रूप है। ब्रह्मचर्य, वीर्य-रक्षा से भी अधिक कहीं गम्भीर एवं व्यापक है। भारतीय धर्मशास्त्रों में ब्रह्मचर्य के तीन भेद किए गए हैं- कायिक, वाचिक और मानसिक। इन तीनों प्रकारों में मुख्यता मानसिक ब्रह्मचर्य की है। यदि मन में ब्रह्मचर्य नहीं है, तो वह वचन में एवं शरीर में कहाँ से आएगा। जो व्यक्ति अपने मन को संयमित नहीं रख सकता, वह कभी भी ब्रह्मचर्य की साधना में सफल नहीं हो सकता। ब्रह्मचर्य की साधना एक वह साधना है, जो अन्तर्मन में अल्प विकार के आने पर भी खण्डित हो जाती है। महर्षि पतञ्जलि ने अपने 'योग-शास्त्र' में ब्रह्मचर्य की परिभाषा करते हुए बताया है कि, "ब्रह्मचर्य-प्रतिष्ठायां वीर्य-लाभ:"। इसका अर्थ है कि जब साधक के मन में, वचन में और तन में, ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठित हो जाता है, स्थिर हो जाता है, तब उसे वीर्य का लाभ मिलता है, शक्ति की प्राप्ति होती है। ब्रह्मचर्य की महिमा प्रदर्शित करने वाले उपर्युक्त योग-सूत्र में प्रयुक्त वीर्य शब्द की व्याख्या करते हुए, टीकाकारों एवं भाष्यकारों ने वीर्य का अर्थ, शक्ति एवं बल भी किया है। यह ब्रह्मचर्य का तेजस्वी तत्त्व है। भोजन और ब्रह्मचर्य :
ब्रह्मचर्य की साधना के लिए साधक को अपने भोजन पर विचार करना चाहिए। भोजन का और ब्रह्मचर्य का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। आयुर्वेद-शास्त्र के अनुसार यह कहा गया है कि मनुष्य के विचारों पर उसके भोजन का पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। मनुष्य जैसा भोजन करता है, उसी के अनुसार विचार बनते हैं और जैसे उसके विचार होते हैं, उसी के अनुसार उसका आचरण होता है। लोक में कहावत है कि 'जैसा आहार, वैसा विचार और जैसा अन्न वैसा मन।' इन कहावतों में जीवन का गहरी तथ्य छुपा हुआ है। मनुष्य जो कुछ और जैसा भोजन करता है, उसका मन वैसा ही अच्छा या बुरा बनता है क्योंकि मुक्त भोजन से जीवन के मूलतत्त्व रुधिर की उत्पत्ति होती है और इसमें वे ही गुण आते हैं, जो गुण भोजन में होते हैं। भोजन हमारे मन
और बुद्धि के अच्छे और बुरे होने में निमित्त बनता है। इसी आधार पर भारतीय संस्कृति में यह कहा गया है कि सात्विक गुणों की साधना करने वाले के लिए सात्विक भोजन की नितान्त आवश्यकता है। सात्विक भोजन हमारी साधना का आधार है।
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