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________________ — ब्रह्मचर्य : सिद्धान्त एवं साधना |३४९ साध्वी भगिनी-भाव से साधु की परिचर्या कर सकती है। आवश्यक होने पर एकदूसरे को उठा-बैठा भी सकते हैं। फिर भी उनका ब्रह्मचर्य-व्रत भंग नहीं होता परन्तु यदि परस्पर सेवा करते समय भ्रातृत्व एवं भगिनी-भाव की निर्विकार सीमा का उल्लंघन हो जाता है, मन-मस्तिष्क के किसी भी कोने में वासना का बीज मुकुलित हो उठता है, तो उनकी ब्रह्म-साधना दूषित हो जाती है। ऐसी स्थिति में वे प्रायश्चित के अधिकारी बताए गए हैं। विकार की स्थिति में ब्रह्मचर्य की विशुद्ध साधना कथमपि सम्भवित नहीं रहती। इससे स्पष्ट होता है कि आगम में साधु-साध्वी को उच्छृखल रूप से परस्पर या अन्य स्त्री-पुरुष का स्पर्श करने का निषेध है क्योंकि उच्छंखल भाव से सुषुप्त वासना के जाग्रत होने की सम्भावना है, और वासना का उदय होना साधना का दोष है। अत: वासना का त्याग एवं वासना को उद्दीप्त करने वाले साधनों का परित्याग ही ब्रह्मचर्य है। वासना, विकार एवं विषयेच्छा आत्मा के शुद्ध भावों की विनाशक है। अत: जिस समय आत्मा के परिणामों में मलिनता आती है, उस समय ब्रह्म-ज्योति स्वत: ही धूमिल पड़ जाती है। 'ब्रह्मचर्य' शब्द भी इसी अर्थ को स्पष्ट करता है। ब्रह्मचर्य शब्द का निर्माण 'ब्रह्म' और 'चर्य' इन दो शब्दों के संयोग से हुआ है। गाँधीजी ने इसका अर्थ किया है-'ब्रह्मचर्य अर्थात् ब्रह्म की, सत्य की शोध में चर्या अर्थात् तत्सम्बन्धी आचार।' ब्रह्म का अर्थ है-आत्मा का शुद्ध-भाव और चर्या का अभिप्राय है-चलना, गति करना या आचरण करना। शुद्ध-भाव कहिए, या परमात्व-भाव कहिए, या सत्यसाधना कहिए—बात एक ही है। सब का ध्येय यही है, कि आत्मा को विकारी भावों से हटाकर शुद्धपरिणति में केन्द्रित करना। आत्मा की शुद्ध परिणति ही परमात्मज्योति है, परब्रह्म है, अनन्त सत्यं की सिद्धि है, और इसे प्राप्त करने की साधना का नाम ही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य की साधना, सत्य की साधना है, परमात्व-स्वरूप की साधना है। ब्रह्म-व्रत की साधना, वासना के अन्धकार को समूलतः विनष्ट करने की साधना है। भारत के प्राचीन योगी, ऋषि एवं मुनियों ने ब्रह्मचर्य शब्द की व्याख्या करते हुए बताया है कि आठ प्रकार के मैथुन से विरत होना ही ब्रह्मचर्य है। वे आठ मैथुन इस प्रकार हैं-स्मरण, कीर्तन, केलि, प्रेक्षण, गुह्य-भाषण, संकल्प, अध्यवसाय और सम्भोग। इन आठ प्रकार के मैथुन-भाव का परित्याग ही वस्तुतः ब्रह्मचर्य शब्द का मौलिक अर्थ है। भारत के विभिन्न धर्मशास्त्रों में ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले साधक को चेतावनी देते हुए कहा गया है कि वत्स! इन आठ प्रकार के मैथुन में से १. स्मरण कीर्तन केलिः प्रेक्षणं गुह्म-भाषणम्। संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रिया-निवृत्तिरेव च॥ ३१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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