SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 360
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्य का विराट रूप ३३० भगवान् महावीर ने कहा है "मनुष्य होना उतनी बडी चीज नहीं. बडी चीज है. मनुष्यता का होना। मनुष्य होकर जो मनुष्यता प्राप्त करते हैं, उन्हीं का जीवन वरदान-रूप है। केवल नर का आकार तो बन्दरों को भी प्राप्त होता है।" १. __हमारे यहाँ एक शब्द आया है—'द्विज'। एक तरफ साधु या व्रतधारक श्रावक को भी द्विज कहते हैं और दूसरी तरफ पक्षी को भी द्विज कहते हैं। पक्षी पहले अण्डे के रूप में जन्म लेता है। अण्डा प्राय: लुढ़कने के लिए है, टूट-फूट कर नष्ट हो जाने के लिए है। जब वह नष्ट न हुआ हो और सुरक्षित बना हुआ हो, तब भी वह उड़ नहीं सकता। पक्षी को उड़ाने की कला का विकास उसमें नहीं हुआ है। किन्तु, भाग्य से अण्डा सुरक्षित बना रहता है और अपना समय तय कर लेता है, तब अण्डे का खोल टूटता है और उसे तोड़ कर पक्षी बाहर आता है। इस प्रकार पक्षी का पहला जन्म अण्डे के रूप में होता है, और दूसरा जन्म खोल तोड़ने के बाद पक्षी के रूप में होता है। पक्षी अपने पहले जन्म में कोई काम नहीं कर सकता-अपने जीवन की ऊँची उड़ान नहीं भर सकता। यह दूसरा जीवन प्राप्त करने के पश्चात् ही वह लम्बी • और ऊँची उड़ान भरता है। इसी प्रकार माता के उदर से प्रसूत होना मनुष्य का प्रथम जन्म है। कुछ पुरातन संस्कार उसकी आत्मा के साथ थे, उनकी बदौलत उसने मनुष्य का चोला प्राप्त कर लिया। मनुष्य का चोला पा लेने के पश्चात् वह राम बनेगा या रावण, उस चोले में शैतान जन्म लेगा या मनुष्य अथवा देवता—यह नहीं कहा जा सकता। उसका वह रूप साधारण है, दोनों के जन्म की सम्भावनाएँ उसमें निहित हैं। आगे चलकर जब वह विशिष्ट संज्ञा प्राप्त करता है, चिन्तन और विचार के क्षेत्र में आता है, अपने जीवन का स्वयं निर्माण करता है और अपनी सोई हुई मनुष्यता की वृत्तियों को जगाता है, तब उसका दूसरा जन्म होता है। यही मनुष्य का द्वितीय जन्म है। जब मनष्यता जाग उठती है. तो ऊँचे कर्तव्यों का महत्त्व सामने आ जाता है, मनुष्य ऊँची उड़ान लेता है। ऐसा 'मनुष्य' जिस किसी भी परिवार, समाज या राष्ट्र में जन्म लेता है, वहीं अपने जीवन के पावन सौरभ का प्रसार करता है और जीवन की महत्त्वपूर्ण ऊँचाइयों को प्राप्त करता है। अगर तुम अपने मनुष्य-जीवन में मनुष्य के मन को जगा लोगे, अपने भीतर मानवीय वृत्तियों को विकसित कर लोगे और अपने जीवन के सौरभ को संसार में फैलाना शुरू कर दोगे, तब दूसरा जन्म होगा। उस समय तुम मानव द्विज बन सकोगे। यह मनुष्य जीवन का एक महान् सन्देश है। १. चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं॥ ..---उत्तराध्ययन ३/१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy