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________________ | ३१२ चिंतन की मनोभूमि किसी पर चढ़ दौड़ेगा और मानव-संसार में युद्ध की आग भड़का देगा । इस दृष्टि से जैन तीर्थङ्कर हिंसा के मूल कारणों को उखाड़ने का प्रयत्न करते रहे हैं । जैन तीर्थङ्करों ने कभी भी युद्धों का समर्थन नहीं किया। जहाँ अनेक धर्माचार्य साम्राज्यवादी राजाओं के हाथों की कठपुतली बनकर युद्ध का उन्मुक्त समर्थन करते आये हैं, युद्ध में मरने वालों को स्वर्ग का लालच दिखाते आये हैं, राजा को परमेश्वर का अंश बताकर उसके लिए सब कुछ अर्पण कर देने का प्रचार करते आये हैं, वहाँ जैन तीर्थंकर इस सम्बन्ध में बहुत ही स्पष्ट और दृढ़ रहे हैं। ' प्रश्न व्याकरण' और 'भगवती सूत्र' युद्ध के विरोध में क्या कुछ कहते हैं ? यदि थोड़ा-सा कष्ट उठाकर देखने का प्रयत्न करेंगे, तो वहाँ बहुत कुछ युद्ध-विरोधी विचार-सामग्री प्राप्त कर सकेंगे। मगधाधिपति अजातशत्रु कूणिक भगवान् महावीर का कितना उत्कृष्टभक्त था ? 'औपपातिक सूत्र' में उसकी भक्ति का चित्र चरम सीमा पर पहुँचा हुआ है। प्रतिदिन भगवान् के कुशल- समाचार जान कर फिर अन्न-जल ग्रहण करना, कितना उग्र नियम है। परन्तु वैशाली पर कूणिक द्वारा होने वाले आक्रमण का भंगवान् ने जरा भी समर्थन नहीं किया। प्रत्युत कूणिक के प्रश्न पर उसे अगले जन्म में नरक का अधिकारी बताकर उसके क्रूर कर्मों को स्पष्ट ही धिक्कारा है। अजातशत्रु इस पर रुष्ट भी हो जाता है, किन्तु भगवान् महावीर इस बात की कुछ भी परवाह नहीं करते । भला, अहिंसा के अवतार उसके रोमांचकारी नर-संहार का समर्थन कैसे कर सकते थे ? अहिंसा निष्क्रिय नहीं है : जैन तीर्थङ्करों द्वारा उपदिष्ट अहिंसा निष्क्रिय अहिंसा नहीं है । वह विध्यात्मक है । जीवन के भावात्मक रूप- प्रेम, परोपकार एवं विश्व बन्धुत्व की भावना से ओत-प्रोत है। जैन धर्म की अहिंसा का क्षेत्र बहुत ही व्यापक एवं विस्तृत है। उसका आदर्श, स्वयं आनन्द से जीओ और दूसरों को जीने दो, यहीं तक सीमित नहीं है। उसका आदर्श है— दूसरों के जीने में सहयोगी बनो। बल्कि अवसर आने पर दूसरों के जीवन की रक्षा के लिए अपने जीवन की आहुति भी दे डालो। वे उस जीवन को कोई महत्त्व नहीं देते, जो जन सेवा के मार्ग से सर्वथा दूर रहकर एकमात्र भक्तिवाद के अर्थ - शून्य क्रियाकाण्डों में ही उलझा रहता है 1 भगवान् महावीर ने एक बार अपने प्रमुख शिष्य गणधर गौतम को यहाँ तक कहा था कि मेरी सेवा करने की अपेक्षा दीन-दुःखियों की सेवा करना कहीं अधिक श्रेयस्कर है। मैं उन पर प्रसन्न नहीं, जो मेरी भक्ति करते हैं, माला फेरते हैं । किन्तु मैं उन पर प्रसन्न हूँ, जो मेरी आज्ञा का पालन करते हैं। मेरी आज्ञा है-" प्राणिमात्र की आत्मा को सुख, सन्तोष और आनन्द पहुँचाओ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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