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________________ (३०८ चिंतन की मनोभूमि चेतना का कुछ भी स्पर्श नहीं है, सत्यं, शिवं की साक्षात् अनुभूति नहीं है, मैं शास्त्र नहीं मानता। कुछ मित्र मुझे अर्ध-नास्तिक कहते हैं, मिथ्यात्वी भी कहते हैं। मैं कहता हूँ, अर्ध-नास्तिक का क्या मतलब ? पूरा ही नास्तिक क्यों न कह देते ? यदि सत्य का उद्घाटन करना और उसे मुक्त मन से स्वीकार कर लेना, नास्तिकता है, तो वह नास्तिकता अभिशाप नहीं, वरदान है। मेरा मन महावीर के प्रति अटूट श्रद्धा लिए हुए है, सत्यद्रष्टा ऋषियों के प्रति एक पवित्र भावना लिए हुए है, और यह श्रद्धा ज्यों-ज्यों चिंतन की गहराई का स्पर्श करती है, त्यों-त्यों अधिक प्रबल, अधिक दृढ़ होती जाती है। मैं आज भी उस परम ज्योति को अपने अन्तरंग में देख रहा हूँ और उस पर मेरा मन सर्वतोभावेन समर्पित हो रहा है। भगवान् मेरे लिए ज्योति-स्तम्भ हैं, उनकी वाणी का प्रकाश मेरे जीवन के कण-कण में समाता जा रहा है, किन्तु भगवान् की वाणी क्या है, और क्या नहीं, यह मैं अपने अन्तर्विवेक के प्रकाश में स्पष्ट देखकर चल रहा हूँ। भगवान् की वाणी वह है, जो अन्तर में सत्य श्रद्धा की ज्योति जगाती है, अन्तर में सुप्त ईश्वरत्व को प्रबुद्ध करती है, हमारी अन्तश्चेतना को व्यापक एवं विराट् बनाती है। भगवद्वाणी की स्फुरणा आत्मा की गति-प्रगति से सम्बन्धित है, सूर्य, चन्द्र आदि की गति से नहीं। सोने, चाँदी के पहाड़ों की ऊँचाई-नीचाई से नहीं, नदी-नालों एवं समद्रों की गहराई लम्बाई से नहीं। ऋषियों की वाणी विश्वमैत्री एवं विराट् चेतना की प्रतिनिधि है, उसमें वर्ग-संघर्ष, जाति-विद्वेष एवं असत्कल्पनाओं के स्वर नहीं हो सकते। भगवान् की वाणी में जो शाश्वत सत्य का स्वर मुखरित हो रहा है, उसको कोई भी विज्ञान, कोई भी प्रयोग चुनौती नहीं दे सकता, कोई भी सत्य का शोधक उसकी अवहेलना नहीं कर सकता। किन्तु हम इस अज्ञान में भी नहीं रहें कि भगवान् की वाणी के नाम पर, आप्तवचनों के नाम पर, आज जो कुछ भी लिखा हुआ प्राप्त होता है, वह सब कुछ साक्षात् भगवान् की वाणी है, जो कुछ लिपिबद्ध है वह अक्षर-अक्षर भगवान् का ही कहा हुआ है। प्राकृत एवं अर्धमागधी के हर किसी ग्रन्थ पर महावीर की मुद्रा लगा देना, महावीर की भक्ति नहीं, अवहेलना है। यदि हम सच्चे श्रद्धालु हैं, भगवद्भक्त हैं, तो हमें इस अवहेलना से मुक्त होना चाहिए और यह विवेक कर लेना चाहिए कि जो विचार, जो तथ्य, जो वाणी सिर्फ भौतिकजगत के विश्लेषण एवं विवेचन से सम्बन्धित है, साथ ही प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित भी है,वह भगवान् की वाणी नहीं है, वह हमारा मान्य शास्त्र नहीं है। हों, वह आचार्यों द्वारा रचित या संकलित ग्रन्थ, काव्य या साहित्य कुछ भी हो सकता है, किन्तु शास्त्र नहीं। मैं समझता हूँ, मेरी यह बात आपके हृदय में मुश्किल से उतरेगी। आप गहरी ऊहापोह करेंगे। कुछ तो, मुझे कुछ का कुछ भी कहेंगे। इसकी मुझे कुछ भी चिंता नहीं है। सत्य है कि आज के उलझे हुए प्रश्नों का समाधान इसी दृष्टि से हो सकता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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