SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 327
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०६ चिंतन की मनोभूमि बहुत से जिज्ञासुओं और मेरे साथी मुनियों के समक्ष मैंने जब कभी अपने ये विचार एवं तर्क उपस्थित किए हैं, तो वे कतराने से लगते हैं कि बात तो ठीक है पर यह कैसे कहें कि अमुक आगम को हम शास्त्र नहीं मानते। इससे बहुत हलचल मच जाएगी, श्रावकों की श्रद्धा खत्म हो जाएगी, धर्म का ह्रास हो जाएगा। मैं जब उनकी उक्त रुढ़िचुस्त एवं भीरुता भरी बातें सुनता हूँ, तो मन झुंझला उठता है - यह क्या कायरता है ? यह कैसी मनोवृत्ति है हमारे मन में ! हम समझते हैं कि बात सही है, पर कह नहीं सकते। चूँकि लोग क्या कहेंगे ? मैं समझता हूँ-इसी दब्बू मनोवृत्ति ने हमारे आदर्शों को गिराया है, हमारी संस्कृति का पतन किया है। यही मनोवृत्ति वर्तमान में पैदा हुई शास्त्रों के प्रति अनास्था एवं धर्म विरोधी भावना की जिम्मेदार है। भगवद्भक्ति या शास्त्र - मोह : बहुत वर्ष पहले की बात है, मैं देहली में था । वहाँ के लाला उमरावमलजी एक बहुत अच्छे शास्त्रज्ञ, साथ ही तर्कशील श्रावक थे। उनके साथ प्रायः अनेक शास्त्रीय प्रश्नों पर चर्चा चलती रहती थी। एक बार प्रसंग चलने पर मैंने कहा— " लालाजी । मैं कुछ शास्त्रों के सम्बन्ध में परम्परा से भिन्न दृष्टि रखता हूँ। मैं यह नहीं मानता कि इन शास्त्रों का अक्षर-अक्षर भगवान् ने कहा है। शास्त्रों में कुछ अंश ऐसे भी हैं, जो भगवान् की सर्वज्ञता के साक्षी नहीं है । भूगोल- खगोल को ही ले लीजिए। यह सब क्या है ?" 'महाराज। आपने यह इस पर मैंने उनके समक्ष शास्त्रों के कुछ स्थल रखे, साथ ही लम्बी चर्चा की, और फिर उनसे पूछा- " क्या ये सब बातें एक सर्वज्ञ भगवान् की कही हुई हो सकती हैं ? हो सकती हैं, तो इनमें परस्पर असंगतता एवं विरोध क्यों है ? सर्वज्ञ की वाणी कभी असंगत नहीं हो सकती, और यदि असंगत है, तो वह सर्वज्ञ की वाणी नहीं हो सकती । " मैंने यह कहा तो लालाजी एकदम चौंके और बोले... बात कैसे कही ? ऐसा कैसे हो सकता है ?" लालाजी बुजुर्ग होते हुए भी जड़मस्तिष्क नहीं थे, श्रद्धा प्रधान होते हुए भी तर्कशून्य नहीं थे। उन्होंने लम्बी तत्त्वचर्चा के बाद अन्त में मुक्त मन से कहा'महाराज। इन चाँद - सूरज के शास्त्रों से भगवान् का सम्बन्ध जितना जल्दी तोड़ा जाए, उतना ही अच्छा है। वर्ना इन शास्त्रों की श्रद्धा बचाने गए तो कहीं भगवान् की श्रद्धा से ही हाथ न धो बैठें।" 44 मैं आपसे भी यही पूछना चाहता हूँ कि आप इन चन्द्र, सूर्य, सागर एवं सुमेरु की चर्चा करने वाले शास्त्रों को महत्त्व देना चाहते हैं या भगवान् को ? आपके मन में भगवद्-भक्ति का उद्रेक है या शास्त्र मोह का ? आप कहेंगे, शास्त्र नहीं रहा, तो भगवान् का क्या पता चलेगा ? शास्त्र ही तो भगवान् का ज्ञान कराते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy