________________
| ३०० चिंतन की मनोभूमि
उत्तरकाल में आगमों की संकलना :
मैं सत्य के सम्बन्ध में किसी विशेष चिन्तनधारा में कभी प्रतिबद्ध नहीं रहा, सदा उन्मुक्त एवं स्वतन्त्र चिन्तन का पक्षपाती रहा हूँ, इसलिए जो बात वैदिक ग्रन्थों के सम्बन्ध में कह सकता हूँ, वह जैन ग्रन्थों के सम्बन्ध में भी कहते हुए मुझे कोई संकोच नहीं है ।
इतिहास का विद्यार्थी होने के नाते मैं इस तथ्य को मानता हूँ कि प्रत्येक धर्म परम्परा में समय पर परिवर्तन होते आये हैं, सही के साथ कुछ गलत विचार भी आये हैं और यथावसर उनका परिष्कार भी हुआ है। इसी दिशा में जैन आगमों की मान्यता के सम्बन्ध में मतभेदों की एक लम्बी परम्परा भी मेरे समक्ष खड़ी है । उसमें कब, क्या, कितने परिवर्तन हुए, कितना स्वीकारा गया और कितना नकारा गया, इसका भी कुछ इतिहास हमारे सामने आज विद्यमान है।
नन्दी सूत्र, जिसे कि आप आगम मानते हैं और भगवान् के कहे हुए शास्त्रों की कोटि में गिनते हैं, वह भगवान् महावीर से काफी समय बाद की संकलना है। उसके लेखक या संकलनकर्त्ता आचार्य देववाचक थे । भगवान् महावीर और आचार्य देववाचक के बीच के सुदीर्घ काल में, देश में कितने बड़े-बड़े परिवर्तन आये, कितने भयंकर दुर्भिक्ष पड़े, राजसत्ता में कितनी क्रांतियाँ और परिवर्तन हुए, धार्मिक परम्पराओं में कितनी तेजी से परिवर्तन, परिवर्धन एवं संशोधन हुए, इसकी एक लम्बी कहानी है । किन्तु हम उस एक हजार वर्ष पश्चात् संकलित सूत्र को और उसमें उल्लिखित सभी शास्त्रों को भगवान् महावीर की वाणी स्वीकार करते हैं। यह भी माना जाता है कि उपांगों की संकलना महावीर के बहुत बाद में हुई और प्रज्ञापना जैसे विशाल ग्रन्थ के रचयिता भी एक विद्वान् आचार्य भगवान् महावीर के बहुत बाद हुए हैं। दशवैकालिक और अनुयोग द्वार सूत्र भी क्रमशः आचार्य शय्यंभव और आर्यरक्षित की रचना सिद्ध हो चुके हैं। यद्यपि इन आगमों में बहुत कुछ अंश जीवनस्पर्शी है, पर भगवान् महावीर से उनका सीधा सम्बन्ध नहीं, यह निश्चित है।
मेरे बहुत से साथी इन उत्तरकालीन संकलनाओं को इसलिए प्रमाण मानते हैं कि इनका नामोल्लेख अंग साहित्य में हुआ है और अंग सूत्रों का सीधा सम्बन्ध महावीर से जुड़ा हुआ है। मैं समझता हूँ कि यह तर्क सत्य स्थिति को अपदस्थ नहीं कर सकता, हकीकत को बदल नहीं सकता । भगवती जैसे विशालकाय अंग सूत्र में महावीर के मुख से यह कहलाना कि-'जहाँ पण्णवणाए' – जैसा प्रज्ञापना में कहा है, यह किस इतिहास से संगत है ? प्रज्ञापना, रायपसेणी और उववाई के उद्धरण भगवान् महावीर अपने मुख से कैसे दे सकते हैं ? जबकि उनकी संकलना बहुत बाद में हुई
है।
इस तर्क का समाधान यह दिया जाता है कि बाद के लेखकों व आचार्यों ने अधिक लेखन से बचने के लिए संक्षिप्त रुचि के कारण स्थान-स्थान पर ऐसा उल्लेख
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org