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________________ धर्म की कसौटी : शास्त्र २९५/ स्वरूप आलोक को व्यक्त करना एवं आत्मस्वरूप पर छाई हुई विभाव परिणतियों की मलिनता का निवारण करना—यही आर्षवाणी का मुख्य प्रतिपाद्य होता है। जैन परम्परा में महान् प्रतिनिधि आगमवेत्ता आचार्य जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण से जब पूछा गया कि शास्त्र किसे कहते हैं ? तो उन्होंने बताया-- - "सासिज्जए तेण तहिं वा नेयमायावतो सत्थं।"१ जिसके द्वारा यथार्थ सत्य रूप ज्ञेय का , आत्मा का परिबोध हो एवं आत्मा का अनुशासन किया जा सके, वह शास्त्र है। शास्त्र शब्द शास् धातु से बना है, जिसका अर्थ है-शासन, शिक्षणं, उद्बोधन ! अतः शास्त्र का अर्थ हुआ—जिस तत्त्वज्ञान के द्वारा आत्मा अनुशासित होती है, उबुद्ध होती है, वह तत्त्वज्ञान शास्त्र है। आचार्य जिनभद्र की यह व्याख्या उनकी स्वतन्त्र कल्पना नहीं है, बल्कि इसका आधार जैन आगम है। आगम में भगवान् महावीर की वाणी का यह उद्घोष हुआ है किजिसके द्वारा आत्मा जाग्रत होती है, तप, क्षमा एवं अहिंसा की साधना में प्रवृत होती है, वह शास्त्र है। . उत्तराध्ययन सूत्र, जो भगवान् महावीर की अन्तिम वाणी माना जाता है, उसके तीसरे अध्ययन में चार बातें दुर्लभ बताई गई हैं "मणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं"२ अर्थात् मनुष्यत्व, शास्त्रश्रवण, श्रद्धा और संयम में पराक्रम-पुरुषार्थ ! आगे चलकर बताया गया है कि श्रुति अर्थात् शास्त्र कैसा होता है ?-"जं सोच्चा पडिवज्जति तवं खंतिमहिंसयं"३ –जिसको सुनकर साधक का अन्तर्मन प्रतिबुद्ध होता है, उसमें तप की भावना जागृत होती है और फलतः इधर-उधर बिखरी हुई अनियन्त्रित उद्दाम इच्छाओं का निरोध किया जाता है। इच्छा निरोध से संयम की ओर प्रवृत्ति होती है, क्षमा की साधना में गतिशीलता आती है—वह शास्त्र है। इस संदर्भ में इतना और बता देना चाहता हूँ कि 'खंति' आदि शब्दों की भावना बहुत व्यापक है-इसको भी समझ लेना चाहिए। क्षमा का अर्थ केवल क्रोध को . शान्त करने तक ही सीमित नहीं है, अपितु कषायमात्र का शमन करना भी है। जो क्रोध का शमन करता है, मान का शमन करता है, माया और लोभ की वृत्तियों का शमन करता है, वही सच्चा 'क्षमावान' है। 'क्षमा' का मूल अर्थ 'समर्थ' होना भी है, जो कषायों को विजय करने में सक्षम अर्थात् समर्थ होता है। जो क्रोध, मान आदि की वृत्तियों को विजय कर सके, मन को सदा शान्त-उपशान्त रख सके वह 'क्षमावान' कहलाता है। १. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा १३८४ शासु अनुशिष्टौ शास्यते ज्ञेयमात्मा वाऽनेनास्मादस्मिन्निति वा शास्त्रम्-टीका २. उत्तराध्ययन ३११ ३. उत्तराध्ययन ३।८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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