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________________ २६८ चिंतन की मनोभूमि चन्दन कहाँ गया ? सेठानी ने बताया चन्दन-वन्दन तो मैं जानती नहीं, हाँ! लकड़ियाँ थीं, सो मैंने जलाने के काम में ले लीं। सेठ ने गरज कर कहा अरे वह तो चन्दन की थीं। गजब कर दिया। तुझे कब अक्ल आएगी ? सेठानी ने तुनक कर कहा मुझे क्या पता, कैसी लकड़ी हैं ? लकड़ी थीं, जलाने के काम में ले ली। जरूरत पड़े तो क्या करे कोई ? मैंने भी तो उनसे रोटी पकाई है। कोई बुरा काम तो किया ही नहीं। सेठानी को बेचारा सेठ क्या समझाए कि जिन लकड़ियों से हजारों-लाखों रुपए कमाए जा सकते थे और जो औषधि के रूप में हजारों-लाखों लोगों को लाभ पहुँचा सकती थीं, उन्हें यों जलाकर राख कर डालना, कहीं कोई समझदारी है ? यही स्थिति हमारे तन, धन और यौवन की है। जिस तन से संसार के सर्वश्रेष्ठ पद 'मुक्ति' की प्राप्ति हो सकती है, जिस जीवन से जगत् का विस्तार हो सकता है, उस तन को, उस जीवन को कीड़ों-मकोड़ों की तरह गवाँ देना, कौड़ी के मूल्य पर बर्बाद कर देना, क्या उस सेठानी की तरह ही बेवकूफी नहीं है ? इसलिए हमें सिर्फ जो कुछ प्राप्त हुआ है, उस पर इतराना नहीं चाहिए, बल्कि उसके सदुपयोग पर भी चिन्तन करना चाहिए। जब तक इन दोनों का सामंजस्य नहीं होगा, योग और क्षेम का समवतरण जीवन में नहीं होगा, तब तक मानव का कल्याण नहीं हो सकता। इस धरा पर जिन्हें मानव जीवन का योग मिला है, उन्हें अपने इस जीवन में क्षेम का भी ध्यान रखना चाहिए, जिससे उनका और विश्व का कल्याण हो सके। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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