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________________ ६ योग और क्षेम - एक बार किसी चरवाहे को जंगल में घूमते समय एक चमकीला रत्न मिला। चरवाहा बड़ा खुश हुआ। उसने रत्न को चमकदार पत्थर समझा और उससे खेलने लगा। उछालते-लपकते, ऐसा हुआ कि वह रत्न हाथ से छूटकर पास के अन्धकूप में जा गिरा। यह एक रूपक है। इसके द्वारा भारतीय संस्कृति का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण विषय स्पष्ट होता है। इस रूपक पर यदि योग और क्षेम की दृष्टि से विचार करें, तो जान पाएँगे कि रत्न का मिलना एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण योग था। लेकिन उस योग के साथ क्षेम नहीं रहा, फलतः रत्न को गवाँ कर वह पहले की तरह खाली हाथ ही रह गया। हमें यह जान लेना चाहिए कि योग और क्षेम का क्या अर्थ है, और उसकी क्या सीमा है ? संस्कृत और प्राकृत वाङ्मय में इन शब्दों की बहुत चर्चा हुई है। उपनिषद्, गीता, जैनशास्त्र तथा बौद्धपिटक आदि में स्थान-स्थान पर 'योगक्षेम' शब्द आया है। उस युग के ये जाने-माने शब्द थे। बीच की शताब्दियों में जब संस्कृतिधारा का प्रवाह मन्द पड़ा तो इन शब्दों का स्पर्श जनता की आत्मा को उतना नहीं हो सका, जितना कि प्राचीन युग में था। अतः सम्भव है कि बहुत से सज्जन इन शब्दों की मूल भावना तक नहीं पहुँच पाए हों, इसलिए हम इन दोनों शब्दों का विस्तार पूर्वक चिंतन करेंगे। योग का अर्थ : योग शब्द के पीछे अनेक विचार-परम्पराएं जुड़ी हुई हैं। योग का एक अर्थ- .. 'योगश्चित्तवृत्ति निरोधः' भी है। आसन, प्राणायाम आदि क्रियाओं के द्वारा चित्त के विकल्पों का निरोध करना योग है। यह अर्थ योग साधना में काफी प्रसिद्ध है। किन्तु इसका एक दूसरा सर्व गाह्य अर्थ है-'अप्राप्तस्य प्राप्तिर्योगः।' अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति का नाम है योग, जिसे कि हम संयोग भी कहते हैं। जिसे पाने के लिए अनेकानेक प्रयत्न किए हों, अनेक आकांक्षाएँ मन में उभरी हों, उस वस्तु का मिल जाना योग है अथवा कभी आकस्मिक रूप से बिना प्रयत्न के अनचाहे ही किसी चीज का मिल जाना भी योग है। यह योग प्रायः हर प्राणी को मिलता है। जो जीव जहाँ पर है, उसी गति-स्थिति के अनुसार, उसे अनुकूल या प्रतिकूल योगसंयोग मिलते रहते हैं। इसलिए मेरी दृष्टि में खाली संयोग का इतना महत्त्व नहीं है, जितना कि सुयोग का है। उस चरवाहे को हमेशा ही कंकर-पत्थर का संयोग मिलता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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