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जीवन में 'स्व' का विकास २१९
आध्यात्म की यह अद्भुत विशेषता है कि उसने कभी भी बाहरी आवरण की चिंता नहीं की । शरीर, इन्द्रियाँ, धन, परिवार ये सब ऐसे ही बाहरी आवरण हैं । अपने आप में ये न बुरे हैं न भले । ये अकेले में कोई दुष्परिणाम पैदा नहीं करते, विनाश और संहार नहीं करते और न कल्याण ही कर सकते हैं। जैन दर्शन ने इसीलिए इन आवरणों को ' अघातिया ' कहा है I
आघाती कर्म :
घाती - अघाती कर्म की व्याख्या समझ लेने पर भगवान् महावीर की जीवन दृष्टि आपके समक्ष स्पष्ट हो जाएगी, ऐसा मुझे विश्वास है।
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अघाती का मतलब है आत्मस्वरूप को किसी भी प्रकार की घात नहीं पहुँचाने वाला कर्म | आप जीवित हैं, आयुष्य का भोग कर रहे हैं, तो इससे यह मतलब नहीं कि आपकी आत्मज्योति मलिन हो रही है। आप कोई अनर्थ या बुराई कर रहे हैं आप यदि शताधिक वर्ष भी जीवित रहते हैं, तो भी इससे कोई आत्मस्वरूप में बाधा पहुँचने जैसी बात नहीं है। नाम कर्म के उदय से सुन्दर एवं दृढ़ शरीर मिला है, इन्द्रियों की सम्पूर्ण सुन्दर रचना हुई है, तो इससे भी आत्मा कोई पतित नहीं हो जाती । वेदनीय कर्म से सुख-दुःख की उपलब्धि होती है, किन्तु न सुख आत्मज्योति
मलिन करता है और न दुःख ही । ऊँच-नीच गोत्र मिलने से भी आत्मा कोई ऊँची नीची नहीं होती। इस प्रकार आप देखेंगे कि जैन दर्शन का संघर्ष बाह्य में नहीं है। बाह्य से कभी वह न डरता है और न लड़ता है। उसका संघर्ष तो मात्र भीतर से है । बाहर में धन है, तो उससे क्या धन स्वयं में न कोई बुराई है, न भलाई । बुराई - भलाई, हानि-लाभ तो उनके उपयोग में है । उपयोग का यह तत्त्व भावना में रहता है। यदि आप उसका सदुपयोग करते हैं, तो उस धन से पुण्य भी कर सकते हैं, सेवा भी कर सकते हैं। घर में बच्चा भूखा है, आप दूध पी रहे हैं, और उसे दूध नहीं मिला है। आप सोचते हैं कि मैं आज नहीं पीऊँगा, दूध बच्चे को दे देना चाहिए। घर या पड़ोस में कोई अस्वस्थ है, उसे आवश्यकता है, अब आप अपनी वस्तु को उसे समर्पित कर देते हैं, उस वस्तु का सदुपयोग है। यदि आप वस्तु का गलत नियोजन करते हैं, धन से शराब और वेश्या - गमन की वृत्ति को प्रोत्साहन देते हैं, तो वही वस्तु बुरी भी बन जाती है।
धर्मः एक शाश्वत दर्शन :
कहने का अभिप्राय यह है कि धन से बुराई का जन्म नहीं होता, बल्कि मन से होता है । मन मैला है, घूरा है, तो वहाँ कुछ भी डाल दो, कीड़े ही पैदा होंगे। मन अगर स्वच्छ है, उर्वर खेत है, तो वहाँ गन्दी से गन्दी चीज भी उर्वरक बन जायेगी, फसल खड़ी कर देगी। इसलिए धर्म कहता है - सबसे पहले मन को तैयार करो । मन को शिक्षण दो, ताकि वह समय पर सही निर्णय करने में समर्थ हो सके, गलत काम से बच सके। धर्म का दर्शनचिंतन मन को तैयार करने का उपक्रम है।
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