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२००. चिंतन की मनोभूमि
तुम सावधानी से चलो, खड़े रहो तब भी सावधान रहो, सोते बैठते भी प्रमाद न करो। भोजन करते और बोलते हुए भी उपयोग रखो कि कहीं मन में अनुराग और आक्रोश की लहर न उठ जाए। यदि जीवन में इतनी सावधानी है, अनासक्ति है, तो फिर कहीं भी विचरण करो, कोई भी क्रिया करते रहो, पाप कर्म का बंध नहीं हो सकेगा।
इसका मतलब यह हुआ कि कर्म बंध का मूल कारण प्रवृत्ति नहीं, बल्कि रागद्वेष की आसक्ति है। आसक्ति का गीलापन जब विचारों में होता है, तब कर्म की मिट्टी, कर्म का गोला आत्मा की दीवार पर चिपक जाता है। यदि विचारों में सूखापन है, निस्पृह और अनासक्त भाव है, तो सूखे गोले की तरह कर्म की मिट्टी आत्मा पर चिपकेगी ही नहीं। वीतरागता ही जिनत्व है :
एक बार हम विहार काल में एक आश्रम में ठहरे हए थे। एक गृहस्थ आये और गीता पढ़ने लगे। आश्रम तो था ही। इतने में एक संन्यासी आए, और बोले—पढ़ी गीता तो घर काहे को कोता?" मैंने पूछा "गीता और घर में परस्पर कुछ वैर हैं क्या ? यदि वास्तव में वैर है, तब तो गीता उपदेष्टा श्रीकृष्ण का भी गीता से बैर होना चाहिए और तब तो आप दो-चार साधुओं के सिवाय अन्य किसी को गीता के उपदेश से मुक्ति ही नहीं होगी।' साधु बोला—हमने तो घर छोड़ दिया है। मैंने कहा_घर क्या छोड़ा है, एक घौंसला छोड़ा तो दूसरे कई घौंसलें बसा लिए। कहीं मन्दिर, कहीं मठ और कहीं आश्रम खड़े हो गये। फिर घर कहाँ छूटा है ? संन्यासी ने कहा कि हमने इन सब का मोह छोड़ रखा है। मैंने कहा कि-हाँ, यह बात कहिए। असली बात मोह छोड़ने की है। घर में रहकर भी यदि कोई मोह छोड़ सकता है, तो बेड़ा पार है। घर बन्धन नहीं है, घर का मोह बन्धन है। कभी-कभी घर छोड़ने पर भी घर का मोह नहीं छूटता है और कभी घर नहीं छोड़ने पर भी, घर में रहते हुए भी, घर का मोह छूट जाता है।
बात यह है कि जब मोह और आसक्ति छूट जाती है, तो फिर कर्म में ममत्व नहीं रहता। अहंकार नहीं रहता। उसके प्रतिफल की वासना नहीं रहती। जो भी कर्म, कर्तव्य करना है, वह सिर्फ निष्काम और निरपेक्ष भाव से करना चाहिए। उसमें त्याग और समर्पण का उच्च आदर्श रहना चाहिए। सच्चा निर्मल, निष्काम कर्मयोगी जल में कमल की तरह संसार से निर्लिप्त रहता है। वह अपने मुक्त जीवन का सुख और आनन्द स्वयं भी उठाता है और संसार को भी बाँटता जाता है। मनुष्यता का यह जो दिव्य रूप है, वही वास्तव में नर से नारायण का रूप है। इसी भूमिका पर जन में जिनत्व का दिव्य भाव प्रकट होता है। इन्सान के सच्चे रूप का दर्शन इसी भूमिका पर होता है। इस माँसपिण्ड के भीतर जो सुप्त ईश्वर और परमात्म तत्त्व है, वह यहीं आकर जागृत होता है।
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