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धर्म का अन्तर्हृदय | १९९ बाँधा है उसी के पास ही है न ! कर्मों को जोड़ने की शक्ति इस आत्मा के पास है, चैतन्य के पास है, मतलब यह कि आपके अपने हाथ में ही है। हमारा अज्ञान इस शक्ति को समझने नहीं देता है, अपने आपको पहचानने नहीं देता है, यही हमारी सबसे बड़ी दुर्बलता है ।
दर्शन ने हमें स्पष्ट बतला दिया है कि जो भी कर्म हैं, वे सब तुमने बाँधे हैं, फलत: तुम्हीं उन्हें छोड़ भी सकते हो - बंधप्पमोक्खो तुज्झत्थमेव' बन्धन और मुक्ति तुम्हारे अन्तर में ही है ।
बन्धन क्या है ?
कर्म के प्रसंग में हमें एक बात और विचार लेनी चाहिए कि कर्म क्या है और जो बन्धन होता है वह क्यों होता है ?
अन्य पुद्गलों की तरह कर्म भी एक पुद्गल है, परमाणुपिंड है। कुछ पुद्गल अष्टस्पर्शी होते हैं, कुछ चतुःस्पर्शी । कर्म चतुःस्पर्शी पुद्गल है। आत्मा के साथ चिपकने या बँधने की स्वतन्त्र शक्ति उसमें नहीं है, न वह किसी दूसरे को बाँध सकता है और न स्वयं ही किसी के साथ बँध सकता है ।
हमारा मन, वचन आदि की क्रियाएँ प्रतिक्षण चलती रहती हैं। खाना-पीना, हिलना - डोलना, बोलना आदि क्रियाएँ महापुरुषों के जीवन में भी चलती रही हैं । जीवन में क्रियाएँ कभी बन्द नहीं होतीं । यदि हर क्रिया के साथ कर्म बन्ध होता हो, तब तो मानव की मुक्ति का कभी प्रश्न ही नहीं उठेगा। चूँकि जब तक जीवन है, संसार हैं, तब तक क्रिया बन्द नहीं होती, पूर्ण अक्रियदशा ( अकर्म स्थिति) आती नहीं और जब तक क्रिया बन्द नहीं होती, तब तक कर्म बँधते रहेंगे, तब तो फिर · यह कर्म एक ऐसा सरोवर हुआ, जिसका पानी कभी सूख ही नहीं सकता, निकाला ही नहीं जा सकता। ऐसी स्थिति में मोक्ष क्या होगा ? और कैसे होगा ?
कभी
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सिद्धान्त यह है कि क्रिया करते हुए कर्मबंध होता भी है और नहीं भी । जब क्रिया के साथ राग-द्वेष का सम्मिश्रण होता है, प्रवृत्ति में आसक्ति की चिकनाई होती है, तब जो पुद्गल आत्मा के ऊपर चिपकते हैं, वे कर्म रूप में परिणत हो जाते हैं जिस-जिस विचार और अध्यवसाय के साथ वे कर्म-ग्रहण होते हैं, उसी रूप में वे परिणत होते चले जाते हैं। विचारों के अनुसार उनकी अलग-अलग रूप में परिणति होती है । कोई ज्ञानावरण रूप में, तो कोई दर्शनावरण आदि के रूप में। किन्तु जब आत्मा में राग-द्वेष की भावना नहीं होती, प्रवृत्ति होती है, पर आसक्ति नहीं होती, कर्म क्रिया करते हए भी कर्म बंध नहीं होता ।
भगवान् महावीर से जब पूछा गया कि जीवनयात्रा को किस प्रकार चलाएँ कि कर्म करते हुए, खाते-पीते, सोते-बैठते हुए भी कर्म बन्ध न हों, तो उन्होंने कहा'जयं चरे जयं चिट्ठे जयभासे जयं सए । जयं भुंजन्तो भासन्तो, पावकम्मं न बंधइ ।"
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