________________
| १७२ चिंतन की मनोभूमि
जितने भी विवाद उठे हैं, संघर्ष उभरे हैं, मत और पंथ का विस्तार हुआ है, वे सब बाहर में धर्म को मान लेने से ही हुए हैं। दिगम्बर-श्वेताम्बर के रूप में जैन धर्म के दो टुकड़े क्यों हुए? बौद्धों के हीनयान और महायान तथा वैदिकों के शैव
और वैष्णव मतों की बात छोड़िए, हम अपने घर की ही चर्चा करें कि आखिर कौनसा जागीरी, जमींदारी का झगड़ा हुआ कि एक बाप के दो बेटे अलग-अलग खेमों में जा डटे और एक-दूसरे से झगड़ने लग गए। श्वेताम्बर और दिगम्बर आचार्यों ने एक ही बात कही है कि मन में निष्कामता का और निस्पृहता का भाव रहे, वीतराग दशा में स्थिरता हो, करुणा और परोपकार की वृत्ति हो, संयम एवं सदाचारमय जीवन हो, यही धर्म है। श्वेताम्बर और दिगम्बर सभी इस तथ्य को एक स्वर से स्वीकार करते हैं, कोई आनाकानी नहीं है। प्रश्न है, फिर झगड़ा क्या है ? किस बात को लेकर द्वन्द्व है, संघर्ष है ?
मैं सोचता हूँ, यदि एक-दूसरे को ठीक से अन्दर में समझने का प्रयत्न किया जाता तो विवाद जैसा कोई प्रसंग ही नहीं था। पर, विवाद हुआ धर्म को बाहर में देखने से। श्वेताम्बर मुनि वस्त्र रखते हैं, तो क्या यह अधर्म हो गया ? इसके लिए तर्क है कि वस्त्र आत्मा से भिन्न बाहर की पौद्गलिक चीज है, अत: वह परिग्रह है,
और यदि परिग्रह है, तो फिर साधुता कैसी ? परन्तु उधर दिगम्बर मुनि भी तो कुछ वस्तुएँ रखते हैं—मोरपिच्छी, कमण्डल, पुस्तक आदि। इसके लिए कहा जाता है कि इन पर हमारी ममता नहीं है, जीवरक्षा एवं शरीर शुद्धि आदि के लिए ही यह सब है, इसलिए यह अधर्म नहीं है, तो मैं सोचता हूँ यदि यही बात वस्त्र के सन्दर्भ में भी समझ ली जाती, तो क्या हर्ज था ? श्वेताम्बर मुनि भी तो यही बात कहते हैं"वस्त्र पर हमारी ममता नहीं है।" यह केवल शीतादि निवारण के लिए है, अनाकुलता के लिए है, और कुछ के लिए नहीं। धर्म और उपवास:
भोजन नहीं करने का उद्देश्य क्या है ? उपवास आदि क्यों किए जाते हैं ? उनका उद्देश्य क्या है ? शान्ति और समाधि की प्राप्ति ही न! और भोजन करने का उद्देश्य भी शान्ति और समाधि को बनाये रखना ही है। तब तो हमारा केन्द्र एक ही हुआ और इस केन्द्र पर खड़े होकर ही हम सोच रहे हैं कि उपवास आदि तप के समान भोजन भी अनाकुलता का साधक होने से साधना है, धर्म है। जहाँ तक मेरा अध्ययन एवं अनुभव है, यह समग्र भारतीय दर्शन का मान्य तथ्य है। संत कबीर ने भी कहा है
"कबिरा छुधा कूकरी, करत भजन में भंग । ___या को टुकड़ा डारिके, भजन करो नीशंक ॥"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
- www.jainelibrary.org