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________________ - १६४ चिंतन की मनोभूमि इतर धर्मों का निषेध न करके उदासीन रहने वाला नय सुनय कहा जाता है। जो इतर धर्मों का निषेध करता है, वह दुर्नय है। नयों के वर्गीकरण के बाद एक प्रश्न यह उपस्थित होता है, कि नयों की परिधि एवं परिसीमा क्या है ? इसके सम्बन्ध में मैं आपको पहले बतला चुका हूँ कि किस नय की क्या परिधि है और क्या परिसीमा है। सबसे अधिक विशाल एवं व्यापक विषय नैगम नय का है, एवं सबसे थोड़ा विषय एवम्भूत नय का है। नयों के सम्बन्ध में मूल आगमों से लेकर और अद्यावधि तक के ग्रन्थों में बहुत कुछ लिखा गया है, किन्तु यहाँ पर मैंने नयों का तथा नयों से सम्बद्ध कुछ अन्य विषयों का संक्षेप में ही परिचय कराया है। एक बात अवश्य है, कि जब तक नयवाद को नहीं समझा जाएगा तब तक जैन दर्शन के अनेकान्त सिद्धान्त को भी नहीं समझा जा सकता। किसी भी व्यक्ति के दृष्टिकोण को समझे बिना उसके विषय में किसी प्रकार का निर्णय करना न उचित है और न न्याय-संगत। नयवाद और अनेकान्तवाद हमें यही सिखाता है, कि हम सत्य-दृष्टि को किसी प्रकार ग्रहण करें। किसी एक दृष्टि से सत्य को समझा नहीं जा सकता। एकाङ्गी दृष्टि वस्तु के स्वरूप को ग्रहण करने में असमर्थ है। वस्तुतः अनेकाङ्गी दृष्टि ही सत्य के स्वरूप को समझ सकती है। नयज्ञान का उद्देश्य यही है कि हम अनन्त धर्मात्मक वस्तु के स्वरूप को नयवाद के द्वारा ही भली भांति समझ सकते हैं। अपने विचारों का अनाग्रह ही वस्तुत: अनेकान्त है और उस अनेकान्त की आधार-शिला है-नयवाद एवं अपेक्षावाद। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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