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________________ नयवाद | १५९ अजीव आदि अवान्तर सामान्य को ग्रहण करने वाला और उनके भेदों की उपेक्षा करने वाला-अपर संग्रह नय है जैसे जीव कहने से सब जीवों का ग्रहण तो हुआ, किन्तु अजीव द्रव्यों का ग्रहण नहीं हो सका। अजीव कहने से धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय-आकाश, काल आदि का तो ग्रहण हो जाता है, परन्तु जीव का ग्रहण नहीं होता। संग्रह नय का अर्थ है-संग्रह करने वाला विचार। अतः इस के अपर संग्रह में भी भेद की नहीं, अभेद की ही प्रधानता रहती है। __सात नयों में तीसरा नय है-व्यवहार। लौकिक व्यवहार के अनुसार विभाग करने वाले विचार को व्यवहार नय कहते हैं। जैसे जो सत् है, वह द्रव्य है अथवा पर्याय। जो द्रव्य है उसके जीव आदि छह भेद हैं। जो पर्याय है उसके दो भेद हैंसहभावी और क्रमभावी। इसी प्रकार जो जीव है उसके अनेक भेद हैं। जैसे संसारी और मुक्त आदि-आदि। सब द्रव्यों और उनके विषय में सदा भेदानुसारी वचन-प्रवृत्ति करने वाले नय को व्यवहार नय कहते हैं। यह नय सामान्य को नहीं मानता, केवल विशेष को ही ग्रहण करता है, क्योंकि लोक में घट आदि विशेष पदार्थ ही जलधारण आदि क्रियाओं के योग्य देखे जाते हैं। केवल सामान्य नहीं। रोगी को औषधि दो, इतना कहने से समाधान नहीं है, सामाधान के लिए आवश्यक है कि औषधि का विशेष नाम बताया जाय कि अमुक औषधि दो। यद्यपि निश्चय नय की अपेक्षा से घट में पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्श होते हैं, किन्तु साधारण लोक उस घट को लाल, काला या पीला ही कहते हैं। व्यवहार नय से कोयल काली है, परन्तु निश्चय नय से उसमें पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्श पाए जाते हैं। व्यवहार नय में उपचार होता है। बिना उपचार के व्यवहार नय का प्रयोग नहीं किया जा सकता। व्यवहार नय के दो भेद हैं—सामान्य-भेदक और विशेष-भेदक। सामान्य संग्रह में दो भेद करने वाले नय को सामान्य-भेदक व्यवहार नय कहते हैं, जैसे द्रव्य के दो भेद हैं-जीव और अजीव। विशेष संग्रह में अनेक भेद करने वाला विशेष भेदक व्यवहार नय कहलाता है। जैसे जीव के चार भेद-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव। सात नयों में चतुर्थ नय है-ऋजु सूत्र। वर्तमान क्षण में होने वाली पर्याय को प्रधान रूप से ग्रहण करने वाले नय को ऋजु सूत्र नय कहते हैं। जैसे 'मैं सुखी हूँ।' यहाँ पर सुख पर्याय वर्तमान समय में है। ऋजु-सूत्र नय वर्तमान क्षणस्थायी सुख पर्याय को प्रधान रूप से विषय करता है, परन्तु सुख पर्याय की आधारभूत आत्मा को गौण रूप से मानता है। ऋजुसूत्र नय भूत और भविष्य काल की पर्याय को नहीं मानता, केवल वर्तमान पर्याय को ही स्वीकार करता है। ऋजुसूत्र की दृष्टि में वर्तमान का धन ही धन है और वर्तमान का सुख ही सुख है, भूत और भविष्य के धनादि वर्तमान में अनुपयोगी हैं। ऋजुसूत्र नय के दो भेद हैं-सूक्ष्म ऋजुसूत्र और स्थूल ऋजुसूत्र। जो एक समय-मात्र की वर्तमान पर्याय को ग्रहण करता है, उसे सूक्ष्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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