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________________ नयवाद | १५७ घूमने के लिए अपने घर से बाहर निकले, और घूमते-घूमते आप समुद्र की ओर जा पहुँचे। जिस समय आपने पहली बार समुद्र की ओर दृष्टिपात किया, तब केवल आपने सागर के जल को ही देखा । उस समय आपने न उसका स्वाद लिया, न उसका रंग देखा और न उसके अन्य विशेष धर्मों को ही आप जान पाए । केवल अपने सामान्य रूप में समुद्र के जल को ही देखा । इसको सामान्य दृष्टि कहा जाता है। इसके बाद आप समुद्र के तट पर पहुँच गए। वहाँ पर आपने सागर के जल के रंग को देखा, उसमें प्रतिक्षण उठने वाली तरंगों को देखा, उसके जल को पीकर उसका स्वाद भी चखा, उसकी एक-एक विशेषता को जानने का आपने प्रयत्न किया, इसको विशेष दृष्टि कहते हैं । लोक में जिसे सामान्य दृष्टि कहा जाता है, वस्तुतः वही द्रव्यार्थिक नय है। लोक में जिसे विशेष दृष्टि कहा जाता है, वस्तुतः वही पर्यायार्थिक नय है । मैं आपसे यह कहा रहा था कि प्रमाण से परिज्ञातं अनन्त धर्मात्मक वस्तु के किसी एक धर्म को मुख्य रूप से जानने वाला ज्ञान नय है। उक्त दो नयों के ही विस्तार दृष्टि से सात भेद हैं- नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवम्भूत । उक्त सात नयों की संक्षेप में चर्चा मैं पहले भी कर चुका हूँ । अब यहाँ कुछ और अधिक स्पष्टीकरण के साथ आपको परिचय दे रहा हूँ, जिससे आप भली-भाँति नय के स्वरूपं को समझ सकें। एक बात आप और समझलें, और वह यह है, कि जैन ग्रन्थों में नय का वर्णन दो प्रकार से किया गया है- दार्शनिक दृष्टि से और · आध्यात्मिक दृष्टि से। दार्शनिक दृष्टि से नय का वर्णन इस प्रकार है— सात नयों में पहला नय है— नैगम। निगम शब्द का अर्थ है— जनपद अथवा देश | जिस जनपद की जनता में जो शब्द जिस अर्थ के लिए नियत है, वहाँ पर उस अर्थ और शब्द के सम्बन्ध को जानना ही नैगम नय है। इस शब्द का वाच्य यह अर्थ है और इस अर्थ का वाचक यह शब्द है, इस प्रकार वाच्य - वाचक भाव के सम्बन्धज्ञान को नैगम नय कहते हैं । जो अनेक अर्थों से वस्तु को जानता है अथवा अनेक भावों से वस्तु का निर्णय करता है, उसे नैगम नय कहते हैं। निगम का अर्थसंकल्प भी है। जो निगम (संकल्प) को विषय करे, वह नैगम नय कहा जाता है। उदाहरण के लिए समझिए कि एक व्यक्ति बैठा हुआ है और बातचीत के प्रसंग में वह कहता है, कि "मैं दिल्ली जा रहा हूँ।" यद्यपि अभी उसने गमन-क्रिया प्रारम्भ नहीं की है, मात्र जाने का संकल्प ही किया है, फिर भी वह कहता है, कि मैं दिल्ली जा रहा हूँ । इसी आधार पर नैगम नय को संकल्प मात्र ग्राही कहा गया है। शब्दों के जितने और जैसे अर्थ लोक में माने जाते हैं, उनको मानने की दृष्टि नैगम नय है। नैगम नय पदार्थ को सामान्य, विशेष और उभयात्मक मानता है, नैगम नय तीनों कालों और चारों निक्षेपों को मानता है, तथा नैगम नय धर्म और धर्मी दोनों को ग्रहण करता है । इस आधार पर दर्शन ग्रन्थों में नैगम नय के सम्बन्ध में यह कहा गया है कि दो पर्यायों की, दो द्रव्यों की तथा द्रव्य और पर्याय की प्रधान एवं गौण भावं से विवक्षा करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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