SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ | १५४ चिंतन की मनोभूमि अन्तर्भाव किया गया है। न्याय एवं वैशेषिक आदि दर्शन के विचारों का व्यवहार नय में समावेश किया गया है। क्षणिकवादी बौद्ध विचार को ऋजुसूत्र नय में आत्मसात् किया गया है। यहाँ तक अर्थ को सामने रख कर भेद एवं अभेद पर विचार किया गया है। इससे आगे शब्द शास्त्र का विषय आता है। काल, कारक, संख्या और क्रिया के साथ लगने वाले भिन्न-भिन्न उपसर्ग आदि की दृष्टि से प्रयुक्त होने वाले शब्दों के वाच्य (अर्थ) भिन्न-भिन्न हैं। इस प्रकार कारक एवं काल आदि वाचक शब्द-भेद से अर्थ-भेद ग्रहण करने वाली दृष्टि का शब्द-नय में समावेश किया गया है। एक ही साधन में निष्पन्न तथा एक कालवाचक भी अनेक पर्यायवाची शब्द होते हैं। इन पर्यायवाची शब्दों से भी अर्थ-भेद मानने वाली दृष्टि समभिरूढ़ नय है। एवम्भूत नय कहता है, कि जिस समय जो अर्थ क्रिया में परिणत हो, उसी समय उसमें उस क्रिया से निष्पन्न शब्द का प्रयोग होना चाहिए। इसकी दृष्टि में सभी शब्द क्रिया से निष्पन्न हैं। गुणवाचक 'शुक्ल' शब्द शुचिभवन रूप क्रिया से, जातिवाचक 'अश्व' शब्द आशुगमन रूप क्रिया से, क्रियावाचक, 'चलति' शब्द चलने रूप क्रिया से, नाम वाचक शब्द 'देवदत्त' आदि भी 'देव ने इसको दिया' इस क्रिया से निष्पन्न हुआ है। इस प्रकार ज्ञान, अर्थ और शब्दरूप से होने वाले व्यवहारों का समन्वय इन सप्तनयों में किया गया है। सप्तनयों में प्रत्येक दृष्टि जब तक अपने स्वरूप का प्रतिपादन करती है, तब तक वह सुनय कहलाती है, परन्तु जब वह अपने स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए दूसरी दृष्टि का विरोध करती है, तब उसे दुर्नय कहा जाता है। नयों का एक अन्य प्रकार से भी प्रतिपादन किया गया है-अभेदग्राही दृष्टि और भेदग्राही दृष्टि। अभेदग्राही दृष्टि द्रव्य प्रधान होती है और भेदग्राही दृष्टि पर्याय प्रधान होती है। इस दृष्टि से मूल में नय के दो भेद होते हैं --द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय। जितने भी प्रकार के नय हैं, उन सबका समावेश इन दो नयों में हो जाता है। इन दोनों में भेद इतना ही है कि सामान्य, अभेद एवं एकत्व को ग्रहण करने वाली दृष्टि द्रव्यार्थिक नय है। और विशेष, भेद तथा अनेकत्व को ग्रहण करने वाली दृष्टि पर्यायार्थिक नय है। पहली एकत्व को ग्रहण करती है, तो दूसरी अनेकत्व को। एक दूसरे प्रकार से भी इस विषय पर विचार किया गया है। श्रुत के दो भेद हैं - सकलादेश और विकलादेश। सकलादेश को प्रमाण कहते हैं, क्योंकि इससे वस्तु का सम्पूर्ण ज्ञान होता है। विकलादेश को नय कहते हैं, क्योंकि इससे अनन्तधर्मात्मक वस्तु के किसी एक अंश का ही बोध होता है। . अभी तक मैंने आपको यह बतलाने का प्रयत्न किया कि नयवाद की पृष्ठभूमि क्या है और उसकी आवश्यकता क्यों है ? यह एक निश्चित सिद्धान्त है कि बिना नयवाद के वस्तु के वास्तविक स्वरूप को समझा नहीं जा सकता। मुख्य प्रश्न यह है, . कि नय क्या वस्तु है ? उसका लक्षण क्या है ? उसका स्वरूप क्या है ? और उसकी परिभाषा क्या है ? उक्त प्रश्नों के उत्तर में कहा गया है, कि प्रमाण से गृहीत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy