SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नयवाद . १५३ नयों का वैज्ञानिक विश्लेषण किया है ? जबकि आचार्य समन्तभद्र मे अपने 'आप्तमीमांसा' ग्रन्थ में सप्तभंगी का सूक्ष्म विश्लेषण और विवेचन किया है। मध्य युग में इसी कार्य को आचार्य हरिभद्र और आचार्य अकलंकदेव ने आगे बढ़ाया। नव्यन्याय युग में वाचक यशोविजय जी ने अनेकान्तवाद और स्याद्वाद पर नव्यन्याय शैली में तर्क ग्रन्थ लिखकर दोनों सिद्धान्तों को अजेय बनाने का सफल प्रयत्न किया है। भगवान महावीर से प्राप्त मूल दृष्टि को उत्तरकाल के आचार्यों ने अपने युग की समस्याओं का समाधान करते हुए विकसित किया है। 1 भगवान महावीर के अनेकान्तवाद और स्याद्वाद को समझने के लिए नयवाद और सप्तभंगीवाद को समझना आवश्यक है। मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ कि अनन्त-धर्मात्मक वस्तु के स्वरूप को समझने के लिए प्रमाण और नय दोनों को जानना आवश्यक है। प्रमाण की चर्चा मैं कर चुका हूँ। यहाँ पर सप्त नयों की चर्चा करना ही अभीष्ट है। नय क्या वस्तु है और नय-ज्ञान से क्या लाभ है ? यह एक बड़ा ही महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। नयों को समझने के लिए यह आवश्यक है, कि उसके मूल स्वरूप को समझने का प्रयत्न किया जाए। सामान्यतया इस जगत् में विचार-व्यवहार तीन प्रकार के होते हैं— ज्ञानाश्रयी, अर्थाश्रयी और शब्दाश्रयी । एक व्यक्ति अपने ज्ञान की सीमा में ही किसी भी वस्तु पर विचार कर सकता है। उसका जितना ज्ञान होगा, उतना ही वह उस वस्तु के स्वरूप को समझ सकेगा। यह ज्ञानाश्रयी पक्ष वस्तु का प्रतिपादन विचार प्रधान दृष्टि से करता है। अर्थाश्रयी अर्थ का विचार करते हैं । अर्थ में जहाँ एक ओर एक, नित्य और व्यापी रूप से चरम अभेद्र की कल्पना की जाती है, तो वहाँ दूसरी ओर क्षणिकत्व, परमाणुत्व और निरंशत्व की दृष्टि से अन्तिम भेद की कल्पना भी की जाती है। तीसरी कल्पना इन दोनों चरम कोटियों के मध्य की है। पहली कोटि में सर्वथा अभेद — एकत्व स्वीकार करने वाले अद्वैतवादी हैं, तो दूसरी ओर वस्तु की सूक्ष्मतम वर्तमान क्षणिक अर्थ पर्याय के ऊपर दृष्टि रखने वाले क्षणिक वादी बौद्ध हैं। तीसरी कोटि में पदार्थ को नाना रूप से व्यवहार में लाने वाले नैयायिक एवं वैशेषिक आदि हैं। शब्दाश्रयी लोग भाषा-शास्त्री होते हैं, जो अर्थ की ओर ध्यान न देकर केवल शब्द की ओर ही विशेष ध्यान देते हैं। इनका कहना है कि भिन्न काल वाचक, भिन्न कारकों में निष्पन्न, भिन्न वचन वाले, भिन्न पर्यायवाचक और भिन्न क्रियावाचक शब्द एक अर्थ को नहीं कह सकते। इनके कथन का तात्पर्य यह है कि जहाँ शब्दभेद होता है, वहाँ अर्थभेद होना ही चाहिए। मैं आपसे कह रहा था कि इस प्रकार ज्ञान, अर्थ और शब्द का आधार लेकर प्रयुक्त होने वाले विचारों के समन्वय के लिए, जिन नियमों का प्रतिपादन किया गया है, उन्हें नय, अपेक्षा-दृष्टि और दृष्टिकोण कहा जाता है। नय एक प्रकार का विचार ही है। ज्ञानाश्रित व्यवहार का संकल्प मात्र अर्थात् विचारमात्र को ग्रहण करने वाले नैगम नय में समावेश किया जाता है। अर्थाश्रित अभेद व्यवहार का संग्रह नय में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy