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________________ प्रमाण-वाद १५१ और महत्त्वपूर्ण है। प्रमाण के फल के सम्बन्ध में जो कुछ विचार विभिन्न ग्रन्थों में उपनिबद्ध हैं, उसका सार इस प्रकार है : __ प्रमाण का मुख्य फल एवं प्रयोजन अज्ञान-निवृत्ति है, अर्थ-प्रकाश है। किसी भी पदार्थ का वास्तविक स्वरूप समझने के लिए एवं पदार्थ-सम्बन्धी अज्ञान की निवृत्ति के लिए प्रमाण की आवश्यकता है। प्रमाण के अभाव में वस्तु का परिबोध नहीं हो सकता। मेरे कहने का अभिप्राय इतना ही है, कि प्रमाण का फल अज्ञान का नाश ही है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने अपने 'न्यायावतार' ग्रन्थ में प्रमाण के फल का कथन करते हुए कहा है, कि प्रमाण का साक्षात फल अज्ञान-निवृत्ति ही है। अज्ञान-निवृत्ति के अनन्तर होने वाले परम्पराफल के रूप में केवलज्ञान का फल सुख और उपेक्षा है। शेष चार ज्ञानों का फल ग्रहण-बुद्धि और त्याग-बुद्धि है। सामान्य रूप में प्रमाण का फल इतना ही है कि उसके रहते अज्ञान नहीं रहने पाता। जिस प्रकार सूर्य के आकाश में स्थित होने पर अन्धकार का नाश हो जाता है, अन्धकार कहीं ठहर नहीं पाता, उसी प्रकार प्रमाण से अज्ञान का विनाश हो जाता है। इस अज्ञान-नाश का किसके लिए क्या फल है, इसे स्पष्ट करने के लिए बताया गया है, कि जिस व्यक्ति को केवलज्ञान हो जाता है, उसके लिए अज्ञान-नाश का यही फल है, कि उसे आध्यात्मिक सुख एवं आनन्द प्राप्त हो जाता है और जगत के पदार्थों के प्रति उसका उपेक्षा भाव रहता है। दूसरे लोगों के लिए अर्थात् छद्मस्थ जीवों के लिए अज्ञान नाश का फल ग्रहण और त्याग रूप बुद्धि का उत्पन्न होना है। निर्दोष वस्तु को ग्रहण करना और सदोष वस्तु का परित्याग करना। हेय को छोड़ना और उपोदय को ग्रहण करना। इस प्रकार का विवेक अज्ञान के विनाश से ही हो सक्ता है। यही विवेक सत् कार्य में प्रवृत्ति की प्रेरणा देने के साथ-साथ असत् कार्य से हटने की भी प्रेरणा देता है। यहाँ इस बात का ध्यान रखना चाहिए की प्रमाण का यह फल ज्ञान से भिन्न नहीं है। पूर्वकाल भावी ज्ञान उत्तर काल भावी ज्ञान के लिए प्रमाण है और उत्तरकाल भावी ज्ञान पूर्वकाल भावी ज्ञान का फल है। इस प्रकार प्रमाण और उसके फल की यह परम्परा उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहती है। प्रमाण के सम्बन्ध में जो कुछ मुझे कहना था, संक्षेप में मैं उसका कथन कर चुका हूँ। मैंने आपको प्रारम्भ में ही यह बतलाने का प्रयत्न किया था, कि जैन-दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु का और प्रत्येक पदार्थ का अधिगम प्रमाण और नय से होता है। वस्तु भले ही जड़ हो अथवा चेतन, उसके वास्तविक स्वरूप का परिबोध प्रमाण और नय के अभाव में नहीं हो सकता । अतः प्रमाण और नय वस्तु-विज्ञान के लिए परमावश्यक साधन हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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