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| १५० चिंतन की मनोभूमि है। साधन से साध्य का ज्ञान जब स्वयं के लिए किया जाता है, तब वह स्वार्थानुमान कहलाता है और जब वह किसी दूसरे को कराया जाता है, तब वह परार्थानुमान कहा जाता है। जैनदर्शन के अनुसार अनुमान प्रमाण होते हुए भी वह परोक्ष प्रमाण है। सभी दार्शनिक अनुमान को परोक्ष प्रमाण मानते हैं, इसमें किसी भी प्रकार का विचार-भेद नहीं है।
परोक्ष प्रमाण का पाँचवाँ भेद है—आगम। न्याय-शास्त्र में आगम प्रमाण को शब्द-प्रमाण भी कहा जाता है। आगम प्रमाण क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है, कि आप्त-पुरुष के वचन से आविर्भूत होने वाला अर्थ-संवेदन आगम है। ' आप्त-पुरुष कौन होता है ? इसके उत्तर में कहा गया है, कि जो तत्व को यथावस्थित, जानने वाला हो और जो तत्व का यथावस्थित निरूपण करने वाला हो, वह आप्तपुरुष है। राग एवं द्वेष आदि दोषों से रहित पुरुष ही आप्त हो सकता है, क्योंकि वह कभी विसंवादी और मिथ्यावादी नहीं होता है। जो व्यक्ति विसंवादी अथवा मिथ्यावादी होता है, उसे आप्त-पुरुष नहीं कहा जा सकता। जैन-दर्शन में कहा गया है, कि आप्त पुरुष के वचनों से होने वाला ज्ञान आगम प्रमाण कहलाता है। जब हम ज्ञान को प्रमाण कहते हैं तब उस आप्त-पुरुष के जड़ वचन को प्रमाण कैसे कह सकते हैं ? इसके उत्तर में कहा गया है, कि उपचार से आप्त के वचनों को प्रमाण कहते हैं। निश्चय में तो आप्त वचनों के श्रवण या अध्ययन से होने वाला ज्ञान ही आगम प्रमाण है। आप्त-पुरुष के दो भेद हैं-लौकिक और लोकोत्तर। सत्य प्रवक्ता साधारण व्यक्ति लौकिक आप्त होते हैं, और तीर्थङ्कर आदि विशिष्ट आप्त लोकोत्तर आप्त होते हैं।
मैंने आपसे प्रमाण के सम्बन्ध में संक्षेप में किन्तु स्पष्ट विचार-चर्चा की है। प्रमाण के भेद और उपभेदों में अधिक गहरा उतरना और उसकी विस्तार से चर्चा करना यहाँ अभीष्ट नहीं है। इसका गम्भीर विचार तर्क-शास्त्र में विस्तार के साथ किया गया है। यहाँ तो केवल इतना बतलाना ही अभीष्ट है, कि जैन-दर्शन में प्रमाण की जो स्थिति है, उसका क्या स्वरूप है और उसके मुख्य-मुख्य भेद कितने हैं ? आगमों में अनेक स्थलों पर प्रमाण की गम्भीर विचारणा की गई है। आगमोत्तर साहित्य के ग्रन्थों में, जो विशेष रूप से तर्क-शास्त्र से सम्बद्ध हैं, तर्क शैली के आधार पर प्रमाण के स्वरूप पर गम्भीरता और विस्तार के साथ विचार किया गया है।
प्रमाण के स्वरूप को और उसके प्रमुख भेदों को जान लेने के बाद एक प्रश्न उपस्थित यह होता है, कि प्रमाण का फल क्या है ? प्रत्येक व्यक्ति क्रियमाण क्रिया के फल को जानने की अभिलाषा रखता है। प्रमाण भी एक बोधरूप क्रिया है। इसका फल क्या है ? यह एक सहज जिज्ञासा है, जो प्रत्येक व्यक्ति के मानस में उठती रहती है। प्रमाण के फल के सम्बन्ध में जैन दार्शनिकों का क्या दृष्टिकोण रहा है, और वे प्रमाण के फल को किस रूप में स्वीकार करते हैं, यह विषय भी बड़ा ही रोचक
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