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१३४. चिंतन की मनोभूमि
अतः
पाँच ज्ञानों में पाँचवाँ ज्ञान है— केवलज्ञान। यह ज्ञान विशुद्धतम है । केवलज्ञान को अद्वितीय और परिपूर्ण ज्ञान भी कहा जाता है। आगम की भाषा में इसे क्षायिकज्ञान कहा जाता है। आत्मा की ज्ञान-शक्ति का पूर्ण विकास अथवा आविर्भाव केवलज्ञान है। इसके प्रकट होते ही, फिर शेष ज्ञान नहीं रहते । केवलज्ञान सम्पूर्ण ज्ञान है, उसके साथ मति आदि अपूर्ण ज्ञान नहीं रह सकते। जैन दर्शन के अनुसार केवलज्ञान आत्मा की ज्ञान-शक्ति का चरमविकास है। केवल से बढ़कर अन्य कोई ज्ञान नहीं होता है। इस ज्ञान में अतीत, अनागत और वर्तमान के अनन्त पदार्थ और प्रत्येक पदार्थ के अनन्त गुण और पर्याय केवल ज्ञान के दर्पण में प्रतिक्षण प्रतिबिम्बित होते रहते हैं । केवलज्ञान देश और काल की सीमा - बन्धन से मुक्त होकर रूपी एवं अरूपी समग्र अनन्त पदार्थों का प्रत्यक्ष करता है । अतः उसे सकल प्रत्यक्ष कहते हैं।
मैं आपसे पहले कह चुका हूँ, कि उपयोग के दो भेद हैं- साकार और अनाकार । साकार, ज्ञान को कहते हैं और अनाकार, दर्शन को । इसे एक दूसरे रूप में भी कहा जाता है— सविकल्पक और निर्विकल्पक । जो उपयोग वस्तु के विशेष स्वरूप को ग्रहण करता है, वह सविकल्पक है और जो वस्तु के सामान्य स्वरूप को ग्रहण करता है, वह निर्विकल्पक है । यहाँ पर यह प्रश्न उठाया जा सकता है, कि जैन दर्शन को छोड़कर अन्य किसी दर्शन में तो इस प्रकार का कोई वर्गीकरण नहीं है. फिर जैन दर्शन की इस मान्यता का आधार क्या है ? उक्त प्रश्न के समाधान में कहा गया है, कि जैन दर्शन में ज्ञान और दर्शन की मान्यता अत्यन्त प्राचीन है। मूल आगम में हमें दो प्रयोग मिलते हैं-'जाणइ' और 'पासइ' । इनका अर्थ है— जानना और देखना । जानना, ज्ञान है और देखना, दर्शन है। दूसरा आधार यह है, कि जैन दर्शन में कर्म के आठ भेद स्वीकार किए गये हैं। उन आठ भेदों में पहला है— ज्ञानावरण और दूसरा है दर्शनावरण | ज्ञान को आच्छादित करने वाला कर्म ज्ञानावरण और दर्शन को आच्छादित करने वाला कर्म दर्शनावरण कहलाता है। इससे यह सिद्ध होता है, कि जैन- दर्शन में ज्ञान और दर्शन की मान्यता बहुत ही प्राचीन है। यह सिद्धान्त तर्क से भी सिद्ध होता है । सर्वप्रथम वस्तु के अस्तित्व का ही बोध होता है, तदनन्तर वस्तु की अनेकानेक विशेषताओं का। इससे भी स्पष्ट है कि दर्शन और ज्ञान दो उपयोग होते हैं। एक प्रश्न यह भी उठाया जाता है, कि दर्शन और ज्ञान में पूर्व कौन होता है ? इसके समाधान में कहा गया है, कि जहाँ तक छद्मस्थ का प्रश्न है, सभी आचार्य एक मत हैं कि दर्शन और ज्ञान युगपद् न होकर क्रमश: होते हैं। प्रथम दर्शन होता है और पश्चात् ज्ञान होता है केवली के प्रश्न को लेकर आचार्यों में मतभेद अवश्य हैं। इस विषय में तीन प्रकार के मत हैं—एक मत के अनुसार दर्शन और ज्ञान क्रमशः होते हैं। दूसरे मत के अनुसार दर्शन और ज्ञान युगपद् होते हैं। तीसरे मत के अनुसार दर्शन और ज्ञान भिन्न न होकर अभिन्न हैं ।
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