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________________ समन्वय एवं अन्य विचारधाराएँ १०५) समन्वयवाद: भगवान महावीर का उपदेश है कि पाँचों ही वाद अपने-अपने स्थान पर ठीक हैं, संसार में जो भी कार्य होता है, वह इन पाँचों के समन्वय से अर्थात् मेल से होता है। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि एक ही शक्ति अपने बल पर कार्य सिद्ध कर दे। बुद्धिमान मनुष्य को आग्रह छोड़कर सबका समन्वय करना चाहिए। बिना समन्वय किए, कार्य में सफलता की आशा रखना दराशामात्र है। हाँ, आग्रह और कदाग्रह विग्रह पैदा होता है। यह हो सकता है कि किसी कार्य में कोई एक प्रधान हो और दूसरे सब गौण हों, परन्तु यह नहीं हो सकता कि कोई अकेला स्वतन्त्र रूप से कार्य सिद्ध कर दे। भगवान महावीर का उपदेश पूर्णतया सत्य है। हम इसे समझने के लिए आम बोने वाले माली का उदाहरण ले सकते हैं। माली बाग में आम की गुठली बोता है, यहाँ पाँचों कारणों के समन्वय से ही वृक्ष होगा। आम की गुठली में आम पैदा होने का स्वभाव है, परन्तु बोने का और बोकर रक्षा करने का पुरुषार्थ न हो तो क्या होगा? बोने का पुरुषार्थ भी कर लिया, परन्तु बिना निश्चित काल का परिपाक हुए, आम यों ही जल्दी थोड़े ही तैयार हो जाएगा ? काल की मर्यादा पूरी होने पर भी यदि शुभ कर्म अनुकूल नहीं है, तो फिर भी आम नहीं लगने का। कभी-कभी किनारे आया हुआ जहाज भी डूब जाता है। अब रही, नियति। यह सब कुछ है ही। आम से आम होना प्रकृति का नियम है, इससे कौन इन्कार कर सकता है ? और आम होना होता है, तो होता है, नहीं होना होता है, तो नहीं होता है। हाँ या ना, जो होना है, उसे कोई टाल नहीं सकता। पढ़ने वाले विद्यार्थी के लिए भी पाँचों आवश्यक हैं। पढ़ने के लिए चित्त की एकाग्रता रूप स्वभाव हो, समय का. योग भी दिया जाए, पुरुषार्थ यानी प्रयत्न भी किया जाए, अशुभ कर्म का क्षय तथा शुभ कर्म का उदय भी हो और प्रकृति के नियम नियति एवं भवितव्यता का भी ध्यान रखा जाए; तभी वह पढ़-लिख कर विद्वान् हो सकता है। अनेकान्तवाद के द्वारा किया जाने वाला यह समन्वय ही वस्तुतः जनता को सत्य का प्रकाश दिखला सकता है। विचारों के भंवर जाल में आज मनुष्य की बुद्धि फँस रही है। एकान्तवाद का आग्रह लिए वह किसी भी समस्या का समाधान नहीं पा रहा है। समस्या का समाधान पाने के लिए उसे जैनदर्शन के इस अनेकान्तवाद अर्थात् समन्वयवाद को समझना अत्यंत आवश्यक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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