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________________ पण्डित जयचन्दजी छावड़ा | डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री विद्वद्वर्य श्रुतप्रभावक श्री जयचंदजी छावडा [पूर्वभूमिका : जैन-अध्यात्म-परंपरा में आचार्यप्रवर श्री कुंदकुंद स्वामी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व सर्वोपरी है। उनकी विश्वविख्यात रचना समयसार (समय प्राभृत) उतनी ही लोकप्रिय है; एवं उस पर उतनी ही सर्वांसुंदर, अधिकृत और अध्यात्मसाधकों को आत्मा के अतीन्द्रिय आनंद का स्व-रस चखाने में निमित्तभूत श्री अमृतचन्द्राचार्यकी आत्मख्याति आदि संस्कृत टीकाएं भी है। ___ जैन अध्यात्मको ढुंढारी (प्राचीन हिन्दीका एक रुप) भाषामें गद्यरूप में निबद्ध करके, श्री जयचन्दजीने हिन्दीभाषी जगत पर बडा उपकार किया है। श्री आचार्य शांतिसागरजीने, उसे फलटणसे शास्त्राकार छपवाकर उसका समुचित सन्मान किया। इस महान् विद्वानके बारे में संक्षिप्त माहिती इस छोटे निबंधमें संपादीत की गई है। जिसमें से वर्तमान विद्वानों की परंपरा प्रेरणा प्राप्त करेगी, ऐसी भावना करता हूं। - सम्पादकीय] हिन्दी जैन साहित्य के गद्य-पद्य लेखक में अपने हित को निहित समझकर आपने अपनी विद्वानों में पण्डित जयचन्दजी छावड़ा का नाम श्रद्धा को सुदृढ़ बनाने का प्रयत्न किया। फलतः उल्लेखनीय है। इन्होंने पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि जयचन्दजीने जैनदर्शन और तत्त्वज्ञान के अध्ययन की हिन्दी टीका समाप्त करते हुए अन्तिम का प्रयास किया। वि. सं. १८२१ में जयपुर में प्रशस्ति में अपना परिचय अंकित किया है - इन्द्रध्वज पूजा महोत्सव का विशाल आयोजन काल अनादि भ्रमत संसार, पायो नरभव मैं सुखकार।। किया गया था। इस उत्सव में आचार्यकल्प पंडित जन्म फागई लयौ सुथानि, मोतीराम पिताकै आनि॥ टोडरमलजी के आध्यात्मिक प्रवचन होते थे। इन पायो नाम तहां जयचन्द, यह परजाल तणूं मकरंद। प्रवचनों का लाभ उठाने के लिए दूर-दूर के व्यक्ति द्रव्य दृष्टि मैं देखू जबै, मेरा नाम आतमा कबै ॥ वहाँ आये थे। पण्डित जयचन्द भी यहां पधारे और गोत छावड़ा श्रावक धर्म, जामें भली क्रिया शुभकर्म। ग्यारह वर्ष अवस्था भई, तब जिन मारगकी सुधि लही॥ जैनधर्म की ओर इनका पूर्ण झुकाव हुआ। फलतः इस विद्वान लेखक - कविका जन्म फागी ३-४ वर्ष के पश्चात् ये जयपुर में ही आकर रहने नामक ग्राम में हआ था। यह ग्राम जयपुर से लगे। जयचन्दजीने जयपुर में सैद्धान्तिक ग्रन्थों का डिग्गीमालपुरा रोड पर ३० मील की दूरी पर गम्भीर अध्ययन किया। बसा हुआ है। यहाँ आपके पिता मोतीरामजी जयचन्दजी का स्वभाव सरल और उदार था। पटवारी का काम करते थे। इसी से आपका उनका रहन-सहन और वेशभूषा सीधी-सादी थी। वंश पटवारी नाम से प्रसिद्ध रहा है। ये श्रावकोचित क्रियाओं का पालन करते थे और ११ वर्ष की अवस्था व्यतीत हो जाने पर बड़े अच्छे विद्याव्यसनी थे। अध्ययनार्थियों की कवि का ध्यान जैनधर्म की ओर गया और उसी , भीड़ इनके पास सदा लगी रहती थी। इनके पुत्र ૧૬૦ તીર્થ-ઓંરભ २४ तनयंती वर्ष: २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001295
Book TitleTirth Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba
Publication Year2000
Total Pages202
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Devotion, & Articles
File Size6 MB
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