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की अनुभव करने की वस्तु है । अतः जीवन की धारा को वीतरागता की ओर मोड़ने में प्रयासकी आवश्यकता है। वीतरागता से राग की ओर आनें में प्रयास नहीं करना पड़ता है। वह तो अनादिकाल से हम उस ओर जाने के अभ्यस्त है। वीतरागताकी और बढने के लिए वाचनिक मानसिक और शारीरिक सभी प्रयास करना पड़ता है। शुरू में कोई भी दवा कड़वी होती है परंतु उसका परिणाम मीठा होता है। जो हमारे रोग को नष्ट कर देती है । उसी प्रकार शुद्ध चैतन्य को जानकर हमारे जीवन में आनंद ही आनंद होता है । राग द्वेष अपने आप खत्म हो
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जाता है। हमें अध्यात्म को पढकर जीवन को उसी ओर ढालने का प्रयत्न करना चाहिये यही स्वाध्याय व देवशास्त्र और गुरुकी उपासनाका फल है। यदि हमने मोक्षमार्ग पर चलने का प्रयत्न नहीं किया तो अनादिकाल से भटक रहे हैं और भटकते जायेगे। जीवन में दुःख के सिवाय कुछ मिलेगा नहीं। आत्मा को न कोई सुखी बना सकता है न कोई दुःखी । वह स्वयं अपने परिणामों द्वारा सुखी या दुःखी बनता है । भवसागर पार होने के लिए स्वानुभूति प्राप्त करना आत्मा को पहिचानना अत्यंत आवश्यक है ।
दान परिग्रह से मुक्ति का साधन है।
सब दानों में अभय-दान ( जीवन दान) उत्तम माना गया है।
दान-धर्म
दान एक वशीकरण मंत्र है जो सभी प्राणियों को मोह लेता है। दान से शत्रुता भी नष्ट हो जाती है और दान देने से पराये भी अपने हो जाते हैं। इतना ही नहीं, अपितु दान देने से समग्रलोक में चारों तरफ कीर्ति फैलती है। दान देने से अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होती है । इसलिए सभी धर्मों में दान-धर्म सर्वोत्तम कहा गया है।
दान देने वाला ऊँचा पद पाता है, संचय करनेवाला नहीं । बादल, जो पानी बरसाते हैं, हमेशा ऊँचे रहते हैं और समुद्र, जो संचय करता है, नीचा रहता है।
• सत्कार्य द्वारा कमाए गए धन में से एक पैसे का दान, दुष्कर्म अथवा अन्याय द्वारा कमाए गए धन से एक रूपये के दान की अपेक्षा अधिक फलदायी होता है।
તીર્થ-સૌરભ
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રજતજયંતી વર્ષ : ૨૫
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