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________________ आत्मानुभूति प्रा. सुभागा सु. बोयड संसार के सभी जीवो में सामान्यतः में नहीं गंवायेगा। वीतरागता ही ऐसी दवा रागानुभूति होती है परंतु मोक्षमार्ग में होनेवाली है जिससे जन्म जरा मृत्यु का रोग नष्ट हो जाता वीतराग अनुभूति नहीं होती है। आत्मा के है। आत्मा की अनुभूति कर सकेगें । देवशास्त्र विकास के लिए वीतराग स्वसंवेदनकी आवश्यकता मंदिर गुरु सभी है परंतु हमारी गति उस ओर है । जिन पदार्थो से हमारे मन में रागद्वेष उत्पन्न नहीं हो रही है : राग द्वेष, विषयकषाय जो होते हैं उन पदार्थों से अपनी दृष्टि को धीरे अनादिकाल से चला आ रहा है उसी ओर हमारे धीरे हटाते जाय और दृष्टि को 'स्व' की ओर पैर बढ रहे हैं । हम समयसार पढ़ तो रहे हैं मोडते जाय तो वीतरागता आने में देर नहीं लगेगी फिर हमारे में परिवर्तन क्यों नहीं आ रहा राग की सामग्री से मन हटाकर वीतरागता की है । क्योंकि समयसार प्रमाद को छोड़कर अप्रमत ओर आना है । 'स्व' की ओर आना ही श्रेयस्कर की ओर आने की चीज है। एक ही गाथा जीवन है । सच्च देव शास्त्र और गुरु से ही 'स्वं की को आत्मानुभूति की और ले जा सकता है : ओर आनेका रास्ता मिल सकता है।' इनका जीवन को उसके अनुरूप बनाना होगा. समयसार सहारा तब तक लेना जब तक हम 'स्व' में जीवन का नाम है, चेतन का नाम है, हृदयकी लीन नहीं हो जाते. देवशास्त्रगुरु के माध्यम से शुद्ध परिणति का नाम है, - यह पर की बात वीतरागता आयेगी और आत्मोपलब्धि प्राप्त हो नही स्व की बात है । आत्मा की बात अनोखी सकेगी। आत्मानुभूति ही समयसार है। जो होती है। जिसे विषयों में रुचि हो गयी है समीचीन रुप से शुद्ध गुण पर्यायों की अनुभूति उसे आत्माकी बात रुचिकर नहीं लगती. अतः करता है, उनको जानता है, पहिचानता है और विषयों को कम करना होगा। आत्मा का स्वाद उसी प्रकारका जीवन बना लेता हे यही या स्वानुभूति का स्वाद स्वर्ग में रहनेवाले देवों समयसार है। “एकः अहं खलु शूद्धात्मा" एक के लिए दुर्लभ है। आत्मानुभव केवल उन्हें होता मैं शुद्धात्मा ऐसा कुन्दकुन्दाचार्य ने लिखा है। है जिन्होंने अपने संस्कारो को परिमार्जित कर सच्चे देव से शुद्धात्मा का ज्ञान होता है, लिया है। जिनकी अनुभूति में वीतरागता आ गुरु से वीतरागता की ओर दृष्टि जाती है। गई है। शास्त्र के प्रसाद से जिनवाणी का ज्ञान होता है । जिससे राग द्वेष नष्ट होकर वीतरागता का बोध होता है । जिसे एक बार समयकी अनुभूति हो जाएगी तो वह अपने समय को दुनियादारी ४तश्यंती वर्ष : २५ - Jain Education International - For Private & Personal Use Only आत्मा को स्वयं देखना होगा। केवली भगवान जानते देखते हैं परंतु किसी को दिखा नहीं सकते। अनंत शक्तिधारी केवली भगवान आत्मा को दिखा नहीं सकते। आत्मा तो देखने - तीर्थ- सोरल 49 www.jainelibrary.org
SR No.001295
Book TitleTirth Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba
Publication Year2000
Total Pages202
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Devotion, & Articles
File Size6 MB
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