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________________ क्रोध का परिवार विद्यावाचस्पति डॉ. आदित्य प्रचण्डिया, डी.लिट्. ऋण, व्रण, अग्नि और कषाय इनका यदि हो जाती है, आंखे लाल हो जाती है और नसों थोड़ा सा अंश भी अवशिष्ट रह जाए तो उसकी में रक्त का प्रवाह तीव्र गति पकड़ जाता है। कभी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। इनका अल्प क्रोधी व्यक्ति सामने आने वाले प्रतिपक्षी को अस्तित्व भी बढ़ता-बढ़ता विशाल रूप धारण चुनौती देने लगता है। यह क्रोध का जाग्रत कर लेता है। क्रोध, मान, माया और लोभ ये रूप है। क्रोध मन में आया तो मन को विकृत चारों कषाय पाप की वृद्धि करने वाले हैं अतः किया, वाणी में अभिव्यक्त हुआ तो अपशब्द अपनी आत्मा का हित चाहनेवाले साधक को निकलने लगे और शरीर में संचरित हुआ तो इनका परित्याग करना श्रेयस्कर है। जीव जब शरीर की सारी चेष्टाएं ही विकृत रूप में सामने सांसारिक सुखों से ऊब जाता है तब वह धर्म ___ आई। इसी को क्रोध की उदय स्थिति कहते की शरण लेता है। धर्म इन मोही बन्धनों से हैं। अपने उदय की स्थिति में क्रोध ने मन, छुटकारा दिलाता है। बंधन के अनेक अन्य हेतु वचन और काया इन तीनों की स्वच्छता, पवित्रता हैं जिनमें कषाय की भूमिका सर्वोपरि है। आत्मा और निर्दोषता नष्ट कर दी और उनको गन्दा को कसे उसे कषाय कहते हैं। कषायों का और अपवित्र बना दिया। क्रोध की यह उदय मेरुदण्ड मोह है। मोह का द्वेषजन्य परिणाम स्थिति अच्छी नहीं होती क्यों कि इसमें वह क्रोध विवेक शून्य और हिंसक बन जाता है। क्रोध के आने की स्थिति को उदय कहते क्रोध नाम का कषाय अपनी उदयावस्था हैं और क्रोध के शान्त होने की अवस्था को में और अस्त अवस्था (उपशम) में विद्यमान अस्त (उपशम) कहते हैं। मिट्टी से घुले-मिले तो रहता ही है। उदयावस्था में तो वह अपने पानी को गन्दा पानी कहते हैं। मिट्टी के मिश्रण मध्याह्न काल में स्थित होता है। अस्त (उपशम) के कारण वह पानी मिट्टी के रंग का दिखाई ___ अवस्था में वह मात्र दब जाता है किन्तु उसकी देता है। गंदीले पानी के गन्देपन की स्थिति सत्ता ज्यों की त्यों बनी रहती है। केवल क्षायिक को उदय स्थिति कह सकते हैं। इसी प्रकार अवस्था में ही उसका पूर्ण अभाव हो पाता है। क्रोध नामका विकार मानसिक स्थिति से गुजरता अस्त अवस्था का विशेष महत्त्व इसलिए नहीं हुआ मन और वचन में घुलता-मिलता, काया है कि दबा हुआ विकार या कषाय किसी समय में अभिव्यक्त होता है। व्यक्ति को जब क्रोध भी अनुकूल वातावरण पाकर पुनः जाग्रत हो आता है तो उसके शरीर में क्रोध के सारे चिह्न सकता है। मनोवैज्ञानिक सत्य है कि विकारों प्रकट हो जाते हैं। ओंठों में फड़फडाहट आरंभ को दबाने से या कुचलने से कभी मन शांत તીર્થ-સ્સૌરભ तशयंती वर्ष : २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001295
Book TitleTirth Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba
Publication Year2000
Total Pages202
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Devotion, & Articles
File Size6 MB
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