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________________ राष्ट्रीय और स्वदेशी चेतना विद्यावारिधि डॉ. महेन्द्रसागर प्रचण्डिया (एम.ए., पीएच.डी., डी.लिट्.) राष्ट्रीय शब्द का पूर्व और अपूर्व रूप है राष्ट्र जिसके अर्थ हैं वह निश्चित भू-भाग जहाँ अपना शासन, अपनी भाषा, अपने सारे रीति-रिवाज, अपना खान-पान तथा अपनी सभ्यता, अपनी संस्कृति प्रचलित है । राष्ट्रीय शब्द का सामान्य अर्थ है राष्ट्र का तथा राष्ट्र सम्बन्धी । 'स्वदेशी' शब्द का सामान्य अर्थ है- अपने देश का । 'स्वदेशी' शब्द के आजादी से पूर्व के विशिष्ट प्रयोक्ता थे महात्मा गाँधी । गाँधीजी की मान्यता रही है - 'स्वदेशीकी भावना संसार के सभी स्वतंत्र देशों में है। भारत स्वदेशी भावना के द्वारा स्वतंत्र हुआ और अब उसका आर्थिक और आत्मिक विकास भी इसी भावना के द्वारा हो सकता है। प्रत्येक देश की प्रगति के नियमों का तकाजा है कि वहाँ के रहनेवाले वहाँ की ही पैदाश और माल को ज्यादा अपनायें ।' स्व और पर विषयक भावना का जन्म अर्वाचीन नहीं है । प्रज्ञा और पर्याय मिल कर प्राणी के रूप को स्वरूप प्रदान करते हैं। प्रज्ञा वस्तुतः 'स्व' तत्त्व है जबकि पर्याय है 'पर' तत्त्व। इसी से स्वदेशी और परदेशी जैसी अवधारणायें उत्पन्न हुई हैं। स्वदेशी के प्रति निजता और आत्मीयता होना प्राकृत है, परदेशी के प्रति सौहार्द और सहानुभूति हो सकती है, पर निजता नहीं । गाँधीजी प्रत्येक देशवासी में इसी निजता को जगाना चाहते थे । स्वदेशी में अपने देश के प्रति निजता की अनुभूति उत्पन्न होते ही उसमें राष्ट्रीय चेतना का તીર્થ-સૌરભ १३८ Jain Education International संचार होने लगता है । अपने राष्ट्र में सुख दुःख भोगना सभी राष्ट्रवासियों को स्वीकार होता है । पराये सुख के लिये अपने देश को छोड़ना स्वदेशी मान्यता के प्रति द्रोह है, विद्रोह है । प्रत्येक राष्ट्र प्रेमी को अपने राष्ट्र की धूप और छाँव, अभाव और प्रभाव तथा सुख और दुःख समान रूप से प्रिय और पवित्र प्रतीत होते हैं, उसे परदेशी आकर्षण कभी अभिभूत नहीं कर पाते। दरअसल यही भावना राष्ट्र-प्रेम का पोषण करती है । महात्मा गाँधी 'स्वदेशी' को व्रत मानते थे । व्रत में पर पदार्थ के प्रति लगान पूर्णतः विरत हो जाता है । स्वदेशी के प्रति पूर्ण निष्ठा और संकल्प में दृढ़ता का परिपालन आवश्यक होता है । गांधीजी का मानना था, स्वदेशी व्रत का निर्वाह तभी हो सकता है जब विदेशी का इस्तेमाल न किया जाए। किसी भी भारतवासी को अपने देश की बनी वस्तु का व्यवहार करने केलिये उपदेश करना पड़े तो यह उसके लिये शर्म की बात है । गुलाम भारत में इसी भावना के द्वारा गांधीजी देशवासियों में स्वदेशी के प्रति निजता के संस्कार जगाने में सफल हुये थे । इसी भव्य भावना में अनुप्राणित होकर कितने ही राष्ट्र प्रेमियों ने स्वतंत्रता के लिये उल्लेखनीय उत्सर्ग किए? हँसतेहँसते अपने देश की स्वतंत्रता हेतु अपने प्राण न्योछावर कर दिये। बातों ही बातों में सहर्ष शहीद हो गए। उत्सर्ग और बलिदान की कहानी लम्बी है. રજતજયંતી વર્ષ : ૨૫ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001295
Book TitleTirth Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba
Publication Year2000
Total Pages202
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Devotion, & Articles
File Size6 MB
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